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दोजख में जैहैं तब काटि काटि कीड़े खैहैं
खोंपड़ी को गूद काक टोंटन उड़ावैंगे।
कहै करनेस अबैघूस खात लाजै नाहिं
रोजा औनेवाज अंत काम नहिँ आवैंगे।
कबिन के मामिले में करै जौन खामी
तौन निमक हरामी मरे कफन न पावैंगे।

करनेस


दीप कैसी जाकी जोति जगर मगर होति
गुलाबास बादर मैं दामिनी अलूदा है।
जाफरानी फूलन मैं जैसे हेमलता लसै।
तामैं उग्यो चन्द्र लेन रूप अजमूदा है।
लालन जू लालन के रंग से निचोरि रँगी
सुरँग मजीठ ही के रंगन जमूदा है।
बकि न बहूदा लखिछबिन को तूदाओप
अतर अलूदा अंगना का अंग ऊदाहै।

लालनदास

स्वामी हितहरिवंस की शिष्य परम्परा और शिष्यों में तथा हरिदास स्वामी आदि महात्माओं के संसर्ग से अनेक सहृदय कवि इस शतक में उत्पन्न हुये. उनकी रचनायें बड़ी सरस हैं। उनमें से हितरूप लाल,गदाधर भट्ट, भगवान हित, नागरीदास. बिहारिन दास, भट्ट महाराज, ब्यासजी. सेवक जी, हरिवंस अली, और बिट्ठल बिपुल का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इनमें से कुछ लोगों को रचायें भी देखियेः-

विथुरी सुथरा अलकैं झलकैं
बिच आनि कपोल परी जुछली।