५- धनु है यह गौरमदाइन नाहीं ।
६- 'बारोठे को चार कहि करि केशव अनुरूप' ।
ये बुन्देलखण्डी शब्द हैं। उनके प्रान्त की बोलचाल में ये शब्द प्रचलित हैं। इसलिये विशेष स्थलों पर उनको इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करते देखा जाता है। किन्तु फिर भी इस प्रकार के प्रयोग मर्यादित हैं और संकीर्ण स्थलों पर ही किये गये हैं। इस लिये मैं उनको कटाक्ष योग्य नहीं मानता। उनकी रचना में एक विशेषता यह है कि वे तत्सम शब्दों को यदि किसी स्थान पर युक्त-विकर्प के साथ लिखते हैं तो भी उसमें थोडा ही परिवर्तन करते हैं। जब उनको क्रिया का स्वरूप देते हैं तो भी यही प्रणाली ग्रहण करते हैं। देखिये:---
१- इनहीं के तपतेज तेज बढ़ि है तन तृरण। इनहीं के तपतेज होहिंगे मंगल पूरण।।
२- रामचन्द्र सीता सहित शोभत हैं तेहि ठौर।
३- मनोशची विधिरची विविध विधि वर्णत पंडित ।
'तूरण', पूरण', शोभत . 'वणत'. इत्यादि शब्द इसके प्रमाण हैं । ब्रजभाषा के नियमानुसार इनको 'तूरन'. पूरन, ‘सोभत'. बरनत', लिखना चाहिये था। किन्तु उन्होंने इनको इस रूप में नहीं लिखा। इसका कारण भी उनका सँस्कृत तत्सम शब्दानुराग है।बुन्देलखण्डी भाषा में'हतो' एक वचन पुल्लिंग में और हते बहुवचन पुल्लिंग में बोला जाता है। इनका स्त्रीलिंग रूप हतीं'. और हती होगा। ब्रजभाषा में ए दोनों तो लिखे जाते ही हैं. 'हुतो' और हुती' भी लिखा जाता है। वे भी दोनों रूपों का व्यवहार करते हैं । जैसे ‘सुता बिरोचन को हुतो दीग्ध जिह्वा नाम ।'
उनको अवधी के 'इहाँ', 'उहाँ. 'दिखाउ 'रिझाउ'. दीन', 'कीन, इत्यादि का प्रयोग करते भी देखा जाता है। वे होइ' भी लिखते हैं. होय'भी देखिये :-