इसी बात पर थी. इसीलिये उन्होंने वह मार्ग ग्रहण किया जिसकी चर्चा मैंने अभी की है। कुछ पद्य मैं लिख कर अपने कथन को पुष्ट करना चाहता हूं। देखियेः-
१- "सब शृंगार मनोरति मन्मथ मोहै।
२- सवै सिँगार सदेह सकल सुख सुखमा मंडित।
३-मनो शची विधि रची विविध विधि वर्णत पंडित ।
४-जानै को केसव केतिक बार मैं सेस के सीसन
ऊपर की दो पंक्तियों में एक में 'शृंगार और दूसरे में सिँगार' आया है। शृंगार' संस्कृत का तत्सम शब्द है। अतएव अपने सिद्धान्तानुसार उसको उन्होंने शुद्ध रूप में लिखा है. क्योंकि शुद्ध रूप में लिखने से छन्द की गति में कोई बाधा नहीं पड़ी । परन्तु दूसरी पंक्ति में उन्होंने उसका वह रूप लिखा है जो व्रजभाषा का रूप है । दोनों पंक्तियां एक ही पद्य की हैं । फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया ? कारण स्पष्ट है । 'शृंगार' में पांच मात्रायें हैं और सिंगार में चार मात्रायें हैं। दूसरे चरण में शृंगार' खप नहीं सकता था। क्योंकि एक मात्रा अधिक हो जाती। इस लिये उन्हें उसको व्रजभाषा ही के रूप में रखना पड़ा अपने अपने नियमानुसार दोनों रूप शुद्ध हैं । चौथे पद्य में उन्होंने अपने नाम को दन्त्य स' से ही लिखा, यद्यपि वे अपने नाम में तालव्य 'श' लिखना ही पसन्द करते हैं, यहां भी यह प्रश्न होगा कि फिर कारण क्या ? इसी पंक्ति में सेस' और 'सीसन' शब्द भी आये हैं जिनका शुद्ध रूप शेष' और 'शीशन' है । इस शुद्ध रूप में लिखने में भी छन्द की गति में कोई बाधा नहीं पड़ती। क्योंकि मात्रा में न्यूनाधिक्य नहीं । फिर भी उन्होंने उसको व्रजभाषा के रूप में ही लिखा । इसका कारण भी विचारणीय है वास्तव बात यह है कि उनके कवि हृदय ने अनुमान का लोभ संवरण नहीं किया। अतएव उन्होंने उनको ब्रजभाषा के रूप ही में लिखना पसंद किया। केसव' 'सेस' और 'सीसन' ने दन्त्य 'स' के सहित “उसासी' के साथ आकर जो स्वारस्य