भट चातक दादुर मोर न बोले । चपला चमकै न फिरै खँग खोले । दुति वन्तन को विपदा बहु कीन्हीं। धरनी कहं चन्द्रवधू धर दीन्हीं।
११-सुभ सर सोभै । मुनि मन लोभै। सर सिज फूले । अलि रस भूले। जलचर डोलौं वहु खग वोलैं। वरणि न जाहीं । उर उरझाहीं ।
१२--आरक्त पत्रा सुभ चित्र पुत्री मनो विराजै अति चारु भेषा। सम्पूर्ण सिंदूर प्रभा बसै धौं गणेश भाल स्थल चन्द्र रेखा ।
केशवदास जी की भाषा के विषय में विचार करने के पहले मैं यह प्रगट कर देना चाहता हूं कि इनके ग्रन्थ में जो मुद्रित हो कर प्राप्त होते हैं, यह देखा जाता है कि एकही शब्द के भिन्न भिन्न रूप हैं। इससे किसी सिद्धान्त पर पहुँचना बड़ा दुस्तर है। फिर भी सब बातों पर विचार करके ओर व्यापक प्रयोग पर दृष्टि रख कर मैं जिस सिद्धान्त पर पहुंचा हूं उसको आपलोगों के सामने प्रकट करता हूं। केशवदास जी के ग्रन्थों की मुख्य भाषा ब्रजभाषा है। परन्तु बुन्देलखण्डी शब्दों का प्रयोग भी उनमें पाया जाता है। यह स्वभाविकता है। जिस प्रान्त में वे रहते थे उस प्रान्त के कुछ शब्दों का उनकी रचना में स्थान पाना आश्चर्यजनक नहीं। इस दोष से कोई कवि या महाकवि मुक्त नहीं । बुदेलखण्डी भाषा लगभग ब्रजभाषा ही है और उसकी गणना भी पश्चिमी हिन्दी में ही है। हां, थोड़े से शब्दों या प्रयोगों में भेद अवश्य है। परन्तु इससे