पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२९१

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है। रीति-सम्बन्धी सब विषयों का विशद वर्णन थोड़े में जैसा इन ग्रन्थों में मिलता है, अन्यत्र नहीं । 'रसिक प्रिया' में श्रृंगार रस सम्बन्धी समस्त विशेषताओं का उल्लेख बड़े पाण्डित्य के साथ किया गया है। कवि-प्रिया वास्तवमें कविप्रिया है, कविके लिये जितनी बातें ज्ञातव्य हैं उनका विशद निरूपण इस ग्रन्थ में है। मेरा विचार है कि केशवदासजीकी कवि प्रतिभाका विकास जैसा इन ग्रन्थों में हुआ. दूसरे ग्रन्थों में नहीं। क्या भाषा. क्या भाव, क्या शब्दविन्यास. क्या भाव-व्यञ्जना, जिस दृष्टिसे देखिये ये दोनों ग्रन्थ अपूर्व हैं । उन्होंने इन दोनों ग्रन्थों के अतिरिक्त और ग्रन्थों की भी रचना की है। उनमें सर्व प्रधान रामचन्द्रिका है । यह प्रवन्ध-काव्य है । इस ग्रन्थ के संवाद ऐसे विलक्षण हैं जो अपने उदाहरण आप हैं । इस ग्रन्थ का प्रकृति-वर्णन भी बड़ा ही स्वाभाविक है।

कहा जाता है कि हिन्दी संसार के कवियों ने प्रकृतिवर्णन के विषय में बड़ी उपेक्षा की है। उन्होंने जब प्रकृति वर्णन किया है तब उससे उद्दीपन का कार्य ही लिया है। प्रकृति में जो स्वाभाविकता होती है, प्रकृतिगत जो सौन्दर्य होता है उसमें जो विलक्षणतायें और मुग्धकारितायें पायी जाती हैं उनका सञ्चा चित्रण हिन्दी साहित्य में नहीं पाया जाता। किसी नायिका के बिरह का अवलम्बन कर के ही हिन्दी कवियों और महाकवियों ने प्रकृति-गत विभूतियों का वर्णन किया है। सौन्दर्य-सृष्टि के लिये उन्होंने प्रकृति का निरीक्षण कभी नहीं किया। इस कथन में बहुत कुछ सत्यता का अंश है। कवि कुलगुरु वाल्मीकि एवं कविपुंगव कालिदास की रचनाओं में जैसा उच्च कोटि का स्वाभाविक प्रकृतिवर्णन मिलता है निम्सन्देह-हिन्दी साहित्य में उसका अभाव है । यदि हिन्दी संसार के इस कलंक को कोई कुछ धोता है तो वे कविवर केशवदास के ही कुछ प्राकृतिक वर्णन हैं और वे रामचन्द्रिका ही में मिलते हैं । मैं आगे चलकर इस प्रकार के पद्य उद्धृत करूंगा । यह कहा जाता है कि प्रबंध-काव्यों को जितना सुश-ङ्खलित होना चाहिये रामचन्द्रिका वैसी नहीं है । उसमें स्थान स्थान पर कथा-भागों की श्रृंखला टूटती रहती है । दूसरी यह बात कही जाती है कि जैसी