अवधी में स्त्रीलिंग के साथ सम्बन्ध का चिन्ह सदा 'कै' आता है।गोस्वामी जी की रचनाओं में भी ऐसा ही किया गया है, 'दूध कै माखो','कै छाँह', इत्यादि इसके सबूत हैं। क्रिया बनाने में विधि के साथ इकार का संयोग किया जाता है उनको कवितामें भी यह बात मिलती है जैसे 'भरि','फोरी', 'बोरि' इत्यादि। अनुप्रास के लिये तुकान्त में इस 'इ' को दीर्घ भी कर दिया जाता है। उन्होंने भी ऐसा किया है। देखिये 'जानी', 'होई' इत्यादि। ऐसे ही नियम-सम्बन्धी अन्य बातें भी आप लोगों को उनमें दृष्टिगत होंगी।
सूरदासजी के हाथों में पड़ कर ब्रजभाषा और गोस्वामीजी की लेखनी से लिखी जा कर अवधी प्रौढ़ता को प्राप्त हो गयी। इन दोनों भाषाओं का उच्च से उच्च विकास इनदोनों महाकवियों के द्वारा हुआ। साहित्यिक भाषा में जितना सौन्दर्य-सम्पादन किया जा सकता है इन दोनों महापुरुषों से इनकी रचनाओं में उसकी भी पराकाष्टा हो गई। अनुप्रासों और रस एवं भावानुकूल शब्दों का विन्यास जैसा इन कवि-कर्मनिपुण महाकवियों की कृति में पाया जाता है वैसा आज तक की हिन्दी भाषा की समस्त रचनाओं में नहीं पाया जाता भविष्य में क्या होगा, इस विषय में कुछ कहना असम्भव है। "जिनको सजीव पंक्तियाँ कहते हैं" वे जितनी इन लोगों की कविताओं में मिलती हैं उतनी अबतक की किसी कविता में नहीं मिल सकीं। यदि इन लोगों की शब्द माला में लालित्य नर्तन करता मिलता है तो भाव सुधा-वर्षण करते हैं। जब किसी भाषा की कविता प्रौढ़ता को प्राप्त होती है उस समय उसमें व्यंजना की प्रधानता हो जाती है। इन लोगों की अधिकांश रचनाओं में भी यही बात देखी जाती हैं।
गोस्वामी जी के विषय में योरोपीय या अन्य विद्वानों को जो सम्मतियां हैं उनमें से कुछ सम्मतियों को मैं नीचे लिखता हूं। उनके पढ़ने से आप लोगों को ज्ञात होगा कि गोस्वामी जी के विषय में विदेशी विद्वान् भी कितनी उत्तम सम्मति और कितना उच्च भाव रखते हैं। प्रोफ़ेसर मोल्टन यह कहते हैं।