पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२७५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२६१)

चुका हूं और अब भी यह मुक्त कंठ से कहता हूँ कि सूरदास जी ने जिस विषय पर लेखनी चलायी है. उसमें उनको समकक्षता करने वाला हिन्दी साहित्य में कोई अब तक उत्पन्न नहीं हुआ। किन्तु जैसी सर्वतोमुखी प्रतिभा गोस्वामी जी में देखी जाती है. सूरदास जी में नहीं।

गोस्वामीजी नवरस-सिद्ध महाकवि हैं। सूरदासजी को यह गौरव प्राप्त नहीं। कलाकी दृष्टि से सूरदासजी तुलसीदासजीसे कम नहीं हैं। दोनों एक दूसरेके समकक्ष हैं। किन्तु उपयोगिता दृष्टि से तुलसीदासजीका स्थान अधिक उच्च है। दूसरी विशेषता गोस्वामी जी में यह है कि उनकी रचनायें बड़ी ही मर्यादित हैं। वे श्रीमती जानकी जी का वर्णन जहाँ करते हैं वहां उनको जगज्जननी के रूप में ही चित्रण करते हैं। उनकी लेखनी जानकी जी की महत्ता जिस रूप में चित्रित करती है वह बड़ी ही पवित्र है। जानकी जी के सौन्दर्य-वर्णन की भी उन्होंने पराकाष्ठा की है। किन्तु उस वर्णन में भी उनका मातृ पद सुरक्षित है। निम्न लिखित पंक्तियों को देखियेः-

१-जो तट तरिय तीय समसोया।
जग अस जुवति कहाँ कमनीया।
गिरा मुखर तनु अरध भवानी।
रति अति दुखित अतनुपति जानी।
विष वारुनी वन्धु प्रिय जेही ।
कहिय रमा सम किमि वैदेही।
जो छवि सुधा पयोनिधि होई ।
परम रूपमय कच्छप सोई।
सोभा रजु मंदर सिंगारू ।
मथै पानि पंकज निज मारू ।
येहि विधि उपजै लच्छि जव, सुंदरता सुख मूल।
तदपिसकोच समेत कवि, कहहिं सीय सम तूल।