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चारों और अयथा विचारों से वे संतप्त थे। आर्य्य मर्यादा का रक्षण ही उनका ध्येय था। वे हिन्दू जाति की रगों में वह लहू भरना चाहते थे कि जिससे वह सत्य-संकल्प और सदाचारी बन कर वैदिक धर्म की रक्षा के उपयुक्त बन सके। वे यह भली भांति जानते थे कि लोक-संग्रह सभ्यता की उच्च सीढ़ियों पर आरोहण किये बिना ठीक ठीक नहीं हो सकता,वे हिन्दू जनता के हृदय में यह भाव भी भरना चाहते थे कि चरित्र वल हो संसार में सिद्धि-लाभ का सर्वोत्तम साधन है। इसलिये उन्होंने उस ग्रन्थ की रचना की जिसका नाम रामचरित मानस है और जिसमें इन सब बातों की उच्च से उच्च शिक्षा विद्यमान है। उनकी वर्णन-शैली और शब्द-विन्यास इतना प्रबल है कि उनसे कोई हृदय प्रभावित हुये बिना नहीं रहता। अपने महान् ग्रन्थ में उन्होंने जो आदर्श हिन्दू समाज के सामने रखे हैं वे इतने पूर्ण, व्यापक और उच्च हैं जो मानव समाज की समस्त आवश्यकताओं और न्यूनताओं की पूर्ति करते हैं। भगवान रामचन्द्र का नाम मर्यादा पुरुषोत्तम है। उनकी लीलायें आचार-व्यवहार और नीति भी मर्यादित है। इसलिये रामचरित मानस भी मय्र्यादामय है। जिस समय साहित्य में मय्र्यादा का उल्लंघन करना साधारण बात थी, उस समय गोस्वामी जी को ग्रन्थ भर में कहीं मर्यादा का उल्लंघन करते नहीं देखा जाता। कवि कर्म में जितने संयत वे देखे जाते हैं हिन्दी संसार में कोईकवि या महाकवि उतना संयत नहीं देखा जाता और यह उनके महान् तप और शुद्ध विचार तथा उस लगन का ही फल है जो उनको लोक-संग्रह की ओर खींच रहा था।

गोस्वामी जी का प्रधान ग्रंथ रामायण है। उसमें धर्मनीति, समाज-नीति, राजनीति का सुन्दर से सुन्दर चित्रण है। गृहमेधियों से लेकर संसार त्यागी सन्यासियों तक के लिये उसमें उच्च से उच्च शिक्षायें मौजूद हैं। कर्त्तव्य-क्षेत्र में उतर कर मानव किस प्रकार उच्च जीवन व्यतीत कर सकता है, जिसप्रकार इस विषय में उसमें उत्तम से उत्तम शिक्षायें मौजूद हैं उसी प्रकार परलोक-पथ के पथिकों के लिये भी पुनीत ज्ञान-चर्चा और लोकोत्तर विचार विद्यमान है। हिन्दूधर्म के विविध