पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२७२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२५८)

कैसे जीवन व्यतीत करना चाहिये? कैसे दूसरों के काम आना चाहिये? कैसे कष्ठितों को कष्ट-निवारण करना चाहिये? कैसे प्राणीमात्र का हित करना चाहिये? मानवता किसे कहते हैं? साधुचरित्र का क्या महत्व है? महात्मा किसका नाम है? वे न इन बातों को जानते और न इन्हें जानने का उद्योग करते हैं। फिर भी वे हरि भक्त हैं और इस बात का विश्वास रखते हैं कि उनके लेने के लिये सीधे सत्य लोक से बिमान आयेगा। जिस के ऐसे संस्कार हैं उससे लोक-संग्रह की क्या आशा है? किन्तु कष्ट की बात है कि अधिकांश हमारा संसार-त्यागी-समाज ऐसा ही है। क्योंकि उसने त्याग और हरि-भजन का मर्म समझा ही नहीं, और क्यों समझता जब परोक्ष सत्ता ही से उसको प्रयोजन है और संसार से उसका कोईसम्बन्ध नहीं।

महाप्रभु वल्लभाचार्य ने हिन्दू समाजके इस रोग को उस समय पहचाना था और उन्होंने अपने सम्प्रदाय का यह प्रधान सिद्धान्त रक्खा कि गार्हस्थ्य धर्म में रह कर ही और सांसारिक समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुये ही परमार्थ चिन्ता करनी चाहिये, जिससे समाज लोक संग्रह के मर्मको न समझ कर अस्त-व्यस्त न हो। त्याग का विरोध उन्होंने नहीं किया, किन्तु त्याग के उस उच्च आदर्श की ओर हिन्दू समाज की दृष्टि आकर्षित की जो मानस-सम्बन्धी सच्चा त्याग है। उनका आदर्श इस श्लोक के अनुसार था।

वनेषुःदोषाः प्रभवन्ति रागिणाम्,
गृहेषु पंचेन्द्रिय निग्रहस्तपः
अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्त्तते,
निवृत्त रागस्य गृहं तपोवनम्।

रागात्मक जनों के लिये वन भी सदोष बन जाता है घर में रह कर पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना ही तप है। जो अकुत्सित कर्मों में प्रवृत्त होता है उसके लिये घर ही तपोवन है।' महाप्रभु वल्लभाचार्य की तरह गोस्वामी जी में भी लोक-संग्रह का भाव बड़ा प्रबल था। सामयिक मिथ्या-