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कि जो आत्म-हित करने में असमर्थ है वह लोक हित करने में समर्थ नहीं हो सकता । आत्मोन्नति के द्वारा ही मनुष्य लोक-हित करने का अधिकारी होता है। देखा जाता है कि जिसके मुख से यह निकलता रहता है कि 'अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम' 'दास मलूका यों कहै,सब के दाता राम', वह भी हाथ पाँव डाल कर बैठा नहीं रहता। क्योंकि पेट उसको बैठने नहीं देता। हाँ. इस प्रकार के विचारों से समाज में अकर्मण्यता अवश्य उत्पन्न हो जाती है, जिससे अकर्मण्य प्राणी जाति और समाज के बोझ बन जाते हैं । उचित क्या है ? यही कि हम अपने हाथ पाँव आदि को उन कर्मों में लगावें कि जिनके लिये उनका सृजन है। ऐसा करने से लाभ यह होगा कि हम स्वयं संसार से लाभ उठायेंगे और इस प्रवृत्ति के अनुसार साँसारिक अन्य प्राणियों को भी लाभ पहुँचा सकेंगे प्रयोजन यह है कि सांसारिकता की रक्षा करते हुये, लोक में रहकर लोक के कर्तव्य का पालन करते हुये. यदि मानव वह विभूति प्राप्त कर सके जो अलौकिक बतलायी जाती है। तब तो उसकी जीवन यात्रा सुफल होगी,अन्यथा सब प्रकार की असफलता ही सामने आवेगी। रहा यह कि परलोक में क्या होगा उसको यथा तथ्य कौन बतला सका ?

निर्गुणवाद की शिक्षा लगभग ऐसी ही है जो संसार से विराग उत्पन्न करती रहती है। घर छोड़ो, धन छोड़ो विभव छोड़ो, कुटुब-परिवार छोड़ो करो क्या ? जप, तप और हरि भजन । जीवन चार दिन का है, संसार में कोई अपना नहीं। इसलिये सबको छोड़ो और भगवान का नाम जप कर अपना जन्म बनाओ। इस शिक्षा में लोक संग्रह का भाव कहाँ ? इन्हीं शिक्षाओं का यह फल है कि आज कल हिन्दू समाज में कई लाख ऐसे प्राणी हैं जो अपने को संसार त्यागी समझते हैं और आप कुछ न कर दूसरों के सिर का बोझ बन रहे है। उनके बाल बच्चे अनाथ हों, उनकी स्त्री भूखों मरे उनकी बला से। वे देश के काम आवें या न आवें, जाति का उनसे कुछ भला हो या न हो, समाज उनसे छिन्न-भिन्न होता है तो हो. उनको इन बातों से कोई मतलब नहीं, क्योंकि वे भगवान के भक्त बन गये हैं और उनको इन पचड़ों से कोई काम नहीं । संसार में रह कर