तत्सम शब्दों का प्रयोग करते हैं। किन्तु उनका संस्कृत शब्दोंका भाण्डार व्यापक नहीं था। इसलिये वे सरस, भावमय एवं कोमल संस्कृत शब्दों के चयन में उतने समर्थ नहीं बन सके जितने गोस्वामीजी। कहीं कहीं उन्होंने संस्कृत शब्दों को इतना विकृत कर दिया है कि उसकी पहचान कठिनता से होती है। जैसा 'शार्दूल' का 'सदूर'। परन्तु गोस्वामीजी इस महान दोष से सर्वथा मुक्त हैं। अवधी शब्दों और वाक्यों के विषय में भी उनकी सहृदयता नीर-क्षीर का विवेक करने में हंस की सी शक्ति रखती है। रामचरित-मानस विशाल ग्रन्थ है। परन्तु उसमें ग्रामीण भद्दे शब्द बहुत खोजने पर भी नहीं मिलते। कहीं कहीं तो अवधी शब्द का व्यवहार उनके द्वारा इस मधुरता से हुआ है कि वे बड़े ही हृदयग्राही बन गये हैं। उनकी दृष्टि विशाल थी और वे इस बात के इच्छुक थे कि उनकी रचना हिन्दू संसार में नवजीवन का संचार करे। अतएव उन्होंने हिन्दी-भाषा के ऐसे अनेक शब्दों को भी अपनी रचना में स्थान दिया है जो अवधी भाषा के नहीं कहे जा सकते। उनकी इस दूरदर्शिनी दृष्टि का ही यह फल है कि आज उनके महान ग्रन्थ की उतनी व्यापकता है, कि उसके लिये 'गेहे गेहे जने जने' वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।
गोस्वामी जी जिस समय साहित्य-क्षेत्र में उतरे उस समय निर्गुण-धारा बड़े बेग से बह रही थी। जो जनता को परोक्ष सत्ता की ओर ले जा कर उसके मनों में सांसारिकता से विराग उत्पन्न कर रही थी। विराग वैदिकधर्म का एक अङ्ग है। उसको शास्त्रीय भाषा में निवृत्ति मार्ग कहते हैं। अवस्था विशेष के लिये ही यह मार्ग निर्दिष्ट है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि प्रवृत्ति मार्ग की उपेक्षा कर अनधिकारी भी निवृत्ति-मार्गी बन जाये। निवृत्ति मार्ग का प्रधान गुण है त्याग, जो सर्वसाधारण के लिये सुलभ नहीं। इसीलिये अधिकारी पुरुष ही निवृत्ति मार्गी बन सकता है क्योंकि जो तत्वज्ञ नहीं वह निवृत्ति-मार्ग के नियमों का पालन नहीं कर सकता। निवृत्ति मार्ग का यह अर्थ नहीं कि मनुष्य घर बार और बाल बच्चों का त्याग कर अकर्मण्य बन जाये और तमूरा खड़का कर अपना पेट पालता फिरे। त्याग मानसिक होता है और