पद्मों में से संख्या एक से चार तक के पद्य देखिये उनमें एक ओर यदि मानवों के स्वाभाविक अज्ञान, दुर्बलताओं भ्रम-प्रमाद पर हृदय मर्माहत होता देखा जाता है तो दूसरी ओर मानसिक करुणा अपने हाथों में विनय की पुष्पांजलि लिये किसी करुणासागर की ओर अग्रसर होती दिखलाई पड़ती है। बालभाव का वर्णन जिन पद्यों में है, देखिये संख्या ५ से ७ तक उनमें बालकों के भोले भाले भाव जिस प्रकार अंकित हैं वे बड़े ही मर्म-स्पर्शी हैं। उनके देखने से ज्ञात होता है कि कवि किस प्रकार हृदय की सरल से सरल वृत्तियों और मन के सुकुमार भावों के यथातथ्य चित्रण की क्षमता रखता है। बाल-लीला के पदों को पढ़ते समय ऐसा ज्ञात होने लगता है कि जिस समय की लीला का वर्णन है उस समय कवि खड़ा होकर वहां के क्रिया-कलाप को देख रहा था। इन वर्णनों के पढ़ते ही आँखों के सामने वह समाँ आ जाता है जो उस समय वहाँ मौजूद रह कर कोई देखनेवाली आँखें ही देख सकतीं। इस प्रकार का चित्रण सूरदास के ऐसे सहृदय कवि ही कर सकते हैं, अन्यों के लिये यह बात सुगम नहीं। उनका श्रृंगार-वर्णन पराकाष्ठा को पहुंच गया है। उतना सरस और स्वाभाविक वर्णन हिन्दी साहित्य में नहीं मिलता, यह मैं कहूंगा कि श्रृंगार रस के कुछ वर्णन ऐसे हैं कि यदि वे उस रूप में न लिखे जाते नो अच्छा होता, किन्तु कला की दृष्टि से वे बहुमूल्य हैं। उनका विप्रलम्भ श्रृंगार ऐसा है जिसके पद पद से रस निचुड़ता है। संसार के साहित्य-क्षेत्र में प्रेम-धाराये विविध रूप से बहीं, कहीं वे बड़ी ही वेदनामयी हैं, कहीं उन्मादमयी और रोमांचकारी, और कहीं उनमें आत्मविस्मृति और तन्मयता की ऐसी मूर्ति दिखलायी पड़ती है जो अनुभव करने वाले को किसी अलौकिक संसार में पहुंचा देती है। फिर भी सूरदास की इस प्रकार की रचनायें पढ़ कर यह भावनायें उत्पन्न होने लगती हैं कि क्या ऐसी ही सरसता और मोहकता उन सब धाराओं में भी होगी? प्रेम-लीलाओं के चित्रण में जैसी निपुणता देखी जाती है, वैसी प्रवीणता उनकी अन्य रचनाओं में नहीं पाई जाती। उनका विप्रलम्भ श्रृंगार-सम्बन्धी वर्णन बड़ा ही उदात्त है। उनमें मन के सुकुमार भावों का जैसा अंकन है, जैसी
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