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कि जिससे उसका अर्थ तो वही रह जाता है कि जिसमें वह मिलाया जाता है परन्तु ऐसा करने से उसमें एक विचित्र मिठास आ जाती है। 'सुअना', 'नैना', 'नदिया', 'निँदरिया', 'जियरा', 'हियरा' आदि ऐसे ही शब्द हैं। सूरदासजी इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग अपनी रचना में इस सरसता के साथ करते हैं कि उसका छिपा हुआ रस छलकने लगता है। देखिये—

१—'सूरदास नलिनी के सुअना कह कौने पकरो'।
२—नैना भये अनाथ हमारे।
३—एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो।
४—'मेरे लाल को आउ निँदरिया काहे न आनि सुआवै'।

अवधी भाषा के इसी प्रकार के शब्द 'करेजवा', 'बदरवा' इत्यादि हैं। जैसे संस्कृत में स्वार्थे 'क' आता है जैसे 'पुत्रक', 'बालक' इत्यादि। इन दोनों शब्दों में जो अर्थ 'पुत्र' और 'वाल' का है वही अर्थ सम्मिलित 'क' का है, उसका कोई अन्य अर्थ नहीं। इसी प्रकार 'मुखड़ा', 'बछड़ा', 'हियरा', 'जियरा', 'करेजवा', 'बदरवा', 'अँसुवा', 'नदिया', 'निँदरिया' के 'ड़ा', 'रा', 'वा', और 'या' आदि हैं। जो अन्त में आये हैं और अपना पृथक अर्थ नहीं रखते। केवल 'आ' भी आता है, जैसे 'नैना', 'बैना', 'बदरा', 'अँचरा' का 'आ'

१२ ब्रजभाषा में बहुबचन के लिये शब्द के अन्त में 'न' और 'नि' आता है। इकारान्त शब्दों में पूर्ववर्त्ती वर्ण को ह्रस्व करके याँ और अकारान्त शब्दों के अन्त में 'ऐं' आता है। सूरदास जी की रचनाओं में इन सब परिवर्तनों के उदाहरण मिलते हैं, जिनसे उनकी व्यापक दृष्टि का पता चलता है। निम्नलिखित पंक्तियों को देखियेः—

'कछुक खात कछु धरनि गिरावत छवि निरखत नँदरनियां'
'भरि भरि जमुना उमड़ि चलत है इन नैनन के तीर'