'ऊँचे घर लटकायो', 'पालने झुलावे', 'कर नवनीत लिये' इन वाक्यों में अधिकरण के 'में' चिन्ह का अभाव है।
५—ब्रजभाषा में कुछ ऐसे शब्द प्रयोग में आते हैं जिनमें विभक्ति या प्रत्यय शब्द के साथ सम्मिलित होते हैं, अलग नहीं लिखे जाते। कविता में इससे बड़ी सुविधा होती है। इस प्रकार के प्रयोग अधिकतर बोलचाल पर अवलम्बित हैं। पूर्व कालिक क्रिया का चिन्ह 'कर' अथवा 'के' है। ब्रजभाषा में प्रायः विधि के साथ इकार का प्रयोग करदेने से भी यह क्रिया बन जाती है। जैसे, 'टरि','मिलि','करि', इत्यादि। संज्ञा के साथ जब ओकार सम्मिलित कर दिया जाता है तो वह प्रायः 'भी' का काम देता है जैसे 'एको','दूधो' इत्यादि। 'जसुमति मधुरे गावै' में 'मधुर' के साथ मिला हुआ एकार भाव वाचकता का सूचक है। 'दोना पीठि दुरायो' में 'पीठि' के साथ मिलित इकार अधिकरण के 'में' चिन्ह का द्योतक है इत्यादि।
६— वैदर्भी वृत्ति का यह लक्षण है कि उसमें समस्त पद आते ही नहीं। यदि आते हैं तो साधारण समस्त पद आते हैं लम्बे नहीं। कविवर सुरदास जी की रचना में यह विशेषता पाई जाती है। जैसे 'कमल नयन', 'अम्बुज रस', करीलफल इत्यादि।
७—कोमलता उत्पादन के लिये वे प्रायः 'ड़' और 'ल' के स्थान पर 'र' का प्रयोग करते हैं। जैसे 'घोड़ो' के स्थान पर 'घोरा',तोड़ो के स्थान पर 'तोरो','छोड़ों' के स्थान पर 'छोरो'। इसी प्रकार 'मूल' के स्थान पर 'मूर' और 'चटसाल' के स्थान पर 'चटसार'। उनकी रचनाओं में बिकल्प से 'ड़' का भी प्रयोग देखा जाता है। और 'ल' के स्थान पर 'र' का प्रयोग सब स्थानों पर ही नहीं होता। शब्द के मध्य का यकार और वकार बहुधा 'ऐ' और 'औ' होता रहता है। जैसा 'नयन','बयन','सयन' का 'नैन','बैन','सैन' इत्यादि। और 'पवन','गवन',रवन' का 'पौन', 'गौन','रौन' इत्यादि। परन्तु उनका तत्सम रूप भी वे लिखते हैं। प्रायः ब्रजभाषा में वह शब्द जिसके आदि में ह्रस्व इकार युक्त कोई व्यञ्जन होता