उनको प्रायः अनुस्वार का प्रयोग करते देखा जाता है। जैसे, 'रंक', 'कंचन', 'गंग', 'अंबुज', 'नंदनंदन', 'कंठ' इत्यादि।
२—णकार, शकार, क्षकार के स्थान पर क्रमशः 'न', 'स', और 'छ' वे लिखते हैं। 'ड' के स्थान पर 'ड़', और 'ल' के स्थान पर 'र' एवं संज्ञाओं के आदिके 'य' के स्थान पर 'ज' लिखते उनको प्रायः देखा जाता है। ऐसा वे ब्रज प्रान्त की बोलचाल की भाषा पर दृष्टि रखकर ही करते हैं। 'बरन', 'रेनु', 'गुन', 'ओगुन', 'निरगुन', 'सोभित', 'सत', 'स्याम', 'दसा', 'दरसन', 'अतिसै', 'जसुमति', 'जसुदा', 'जदुपति', 'बिलछि', और 'पच्छी' आदि शब्द इसके प्रमाण हैं।
३—गुरु के स्थान पर लघु और लघु के स्थान पर गुरु भी वे करते हैं। किन्तु बहुत कम। 'माधुरि', 'रँग', 'नहिं', 'दामिनि', 'केहरि', 'मनो', 'भामिनि', 'बिन' इत्यादि शब्दों में गुरु को लघु कर दिया गया है। 'धन', 'मगना', इत्यादि में ह्रस्व को दीर्घ कर दिया गया है, अर्थात् 'धन' और 'मगन' के 'न' को 'ना' बनाया गया है।
यह बात भी देखी जाती है कि वे कुछ कारक चिन्हों और प्रत्ययों आदि को लिखते तो शुद्ध रूप में हैं, परन्तु पढ़ने में उनका उच्चारण ह्रस्व होता है। क्योंकि यदि ऐसा न किया जाय तो छन्दोभंग होगा। निम्नलिखित पंक्तियों में इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है। चिन्हित कारक चिन्हों और शब्दगत वर्णों को देखियेः—
१—'काहे को रोकत मारग सूधो'
२—'मेरे लालको आउ निंदरिया काहे न आनि सुआवै'
३—'सखीरी स्याम सवै एक सार'
४—'सूर सुनौ तुम दोउ सम जोरी एक एक रूप अनूप'
५—'सूर के स्याम करी पुनि ऐसी मृतक हुते पुनि मारे'।
६—'मानो एक मीठ मैं बोरे लै जमुना जो पखारे'।