पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२५७

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जैसी प्रेम की विमुग्धकरी मूर्ति उसमें आविर्भूत होती है वैसाही आन्तरिक वेदनाओं का मर्म-स्पर्शी रूप सामने आता है। ब्रजभाषा के जो उल्लेखनीय गुण अबतक माने जाते हैं और उसके जिस माधुर्य्य का गुणगान अबतक किया जाता है, उसका प्रधान अवलम्बन सुरदासजी का ही कवि कर्म है। एक प्रान्त-विशेष की भाषा समुन्नत होकर यदि देश-व्यापिनी हुई तो वह ब्रजभाषा ही है और ब्रजभाषा को यह गौरव प्रदान करनेवाले कविवर सूरदास हैं। उनके हाथों से यह भाषा जैसी मँजी, जितनी मनोहर बनी, और जिस सरसता को उसने प्राप्त किया वह हिन्दी संसार के लिये गौरव की वस्तु है। मैंने ब्रजभाषा की जो विशेषतायें पहले बतलायी हैं वे सब उनकी भाषा में पाई जाती हैं, वरन् यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा के आधार से हो ब्रजभाषा की विशेषताओं की कल्पना हुई। मेरा विचार है कि उन्हों ने इस बात पर भी दृष्टि रखी है कि कोई भाषा किस प्रकार व्यापक बन सकती है। उनकी भाषा में ब्रजभाषा का सुन्दर से सुन्दर रूप देखा जाता है। परन्तु ग्रामीणता दोष से वह अधिकतर सुरक्षित है। उसमें अन्य प्रान्तिक भाषाओं के शब्द भी मिल जाते हैं। किन्तु इनकी यह प्रणाली बहुत मय्र्यादित है। गुरु को लघु और लघु को गुरु करने में उनको अधिक संयत देखा जाता है। वे शब्दों को कभी कभी तोड़ते मरोड़ते भी हैं। किन्तु उनका यह ढंग उद्वेजक नहीं होता। उसमें भी उनकी लेखनी को निपुणता दृष्टिगत होती है। ब्रजभाषा के जो नियम और विशेषतायें मैं पहले लिख आया हूं उनकी रचनाओं में उनका पालन किस प्रकार हुआ है, मैं नीचे उसको उद्धृत पद्यों के आधार से लिखता हूं—

१—उनकी रचनाओंमें कोमल शब्द-विन्यास होता है। इसलिये उनमें संयुक्त वर्ण बहुत कम गये जाते हैं जो वैदर्भी वृत्ति का प्रधान लक्षण है। यदि कोई संयुक्त वर्ण आ भी जाता है तो वे उसके विषय में युक्त-विकर्ष सिद्धान्त का अधिकतर पालन करते देखे जाते हैं। जैसे, 'समदरसी', 'महातम', 'दुरलभ', 'दुरमति' इत्यादि। वर्गों के पञ्चम वर्ण के स्थान पर