पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२५५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२४१)

९—काहे को रोकत मारग सूधो।
सुनहु मधुप निरगुन कंटक सों राजपंथ क्यों रुँधो।
याको कहा परेखो कीजै जानत छाछ न दूधो।
सूर मूर अक्रूर ले गये ब्याज निबेरत ऊधो।

१०—बिलग मत मानहु ऊधो प्यारे।
यह मथुरा काजर की ओबरी जे आवहिं ते कारे।
तुम कारे सुफलक सुत कारे कारे स्याम हमारे।
मानो एक माँठ मैं बोरे लै जमुना जो पखारे।
ता गुन स्याम भई कालिंदी सूर स्याम गुन न्यारे।

११—अरी मोहिं भवन भयानक लागै माई स्याम बिना।
देखहिं जाइ काहि लोचन भरि नंद महरि के अँगना।
लै जो गये अक्रूर ताहि को ब्रज के प्रान धना।
कौन सहाय करै घर अपने मेरे विघन घना।
काहि उठाय गोद करि लीजै करि करि मन मगना।
सूरदास मोहन दरसनु बिनु सुख संपति सपना।

१२—खंजन नैन रूप रस माते।
अतिसै चारु चपल अनियारे पल पिंँजरा न समाते।
चलि चलि जात निकट स्रवननि के
उलटि पलटि ताटंक फंँदाते।
सूरदास अंजन गुन अटके नतरु अबहिं उड़ि जाते।

१३—ऊधो अँखिया अति अनुरागी।
एक टक मग जोवति अरु रोवति भूलेहुँ पलक न लागी।

}