पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/२०८

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इसी स्थान पर मैं यह भी प्रकट कर देना चाहता हूं कि इस पन्द्रहवीं शताब्दी में जिस निर्गुणवादधारा की अधिक चर्चा की जाती है, वास्तव में वह धारा उस काल से प्रारम्भ होती है जिस समय स्वामी शंकराचार्य ने वेदान्तवाद का प्रचार किया। उनकी निर्गुण धारा का रूप वास्तविकता को दृष्टि से सबेत्तिम है किन्तु वह इतनी उच्च है कि सर्व साधारण की बोधगम्य नहीं। मैक्समूलर ने एक स्थान पर लिखा है कि ईश्वरी विद्या के विषय में स्वामी शंकराचार्य जितना ऊंचा उठे उससे ऊंचा नहीं उठा जा सकता। गुरु गोरखनाथ जी ने इस निर्गुवाद को जटिलताओं को बहुत कुछ सरलता का रूप दिया और भगवान शिव की उपासना का प्रचार कर के अव्यक्त बिषयों को व्यक्त रूप देने को प्रशंशनीय चेष्टा की। उसका विकास ज्ञानदेव और नामदेव की रचनाओं में अधिकतर बोधगम्य रूप में देखा जाता है। पन्द्रहवीं सदीके सन्तमनके प्रचारकों में विशेष कर कबीर साहब की उक्तियों में वह निगुणवाद कुछ और स्पष्ट हुआ, किन्तु वह पौराणिक भावों से ओत प्रोत है। पौराणिक धर्म का उत्थान गुप्त सम्नाटों के समय में अर्थात् तीसरी और चौथो ईस्वी शताब्दी में हुआ और उत्तरोत्तर वृद्धि पाकर ईस्वी दसवीं शताब्दी में वह प्रबल बन गया था। यही कारण है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में जितने धार्मिक प्रचार हुये वे सब पौराणिक धर्म पर अवलंबित हैं। कबीर साहब के निगुणवाद पर भो उसकी छाप लगी हुई है अन्तर केवल इतना ही है कि उनके निगुणवाद पर सूफियों के ईश्वग्वाद की भी छाया पड़ी है। वैष्णव धर्म में जैसा निगुणवाद है और इसके साथ जंसा सगुणवाद सम्मिलित है कबीर साहब का निगुण ब्रह्म-सम्बन्धी सिद्धान्त भी लगभग वैसा ही है। कारण इसका यह है कि उनकी अधिकांश शिक्षायें वैष्णव धर्म से प्रभावित हैं और ऐसा होना इस लिये अनिवार्य था कि स्वामी रामानन्द का उनपर बहुत बड़ा प्रभाव था। कबीर साहब का निर्गुण ब्रह्म अनिर्वचनीय ही नहीं है वह भत्त वत्सल है और पतित पावन भी है। प्रमातिरेक में वे उसके दास बनते हैं और वह उनका स्वामी; वे उसके पुत्र बनते हैं और वह