( १७६ ) को भी सम्मिलित कर लिया जाय । मैं नहीं कह सकता कि इस बहुत ही स्पष्ट विकास की ओर उनकी दृष्टि क्यों नहीं गई। महात्मा ज्ञानेश्वर ने अपने ज्ञानेश्वरी नामक ग्रंथ में अपनी गुरु-परम्परा यह दी है-- (१) आदिनाथ (२ मत्स्ये न्द्रनाथ (३) गोरखनाथ, (४) गहनी नाथ, (५) निवृत्तिनाथ, (६) ज्ञानेश्वर १ ज्ञानेश्वर के शिष्य थे नामदेव २ । उनका समय है १३७० ई० से १४४० ई० तक । इस लिये उनका कबीर साहब से पहले होना निश्चित है। उन्होंने स्वयं अपने भुख से उनको महात्मा माना है । वे लिखते हैं- "जागे सुक ऊधव औ अवर । हनुमत जागे लै लंगूर । संकर जागे चरन सेव । कलि जागे नामा जयदेव । सिक्खों के ग्रन्थ साहब में भी उनके कुछ पद्य संग्रहीत हैं। ज्ञानेश्वर जैसे महात्मा से दीक्षित हो कर उनको वैष्णवता केसी उच्च कोटि की थी और वे कैसे महापुरुष थे उसे निम्न लिखित शब्द बतलाते हैं.. बदो क्यों न होड़ माधो मोसों। ठाकुर ते जन जनते ठाकुर खेल पर्यो है तोसों। आपन देव देहरा आपन आप लगावें पूजा। जल ते तरंग तरंगते है जल कहन सुनन को दूजा। आपहि गावै आपहि नाचै आप बजावै तरा। कहत नामदेव तु मेरे ठाकुर जन ऊरा तृ पूरा ॥ १-देखिये, हिन्दुस्तानी, जनबरी, सन् १९३२ के पृ० ३२ में डाकर हरि रामचन्द्र दिवेकर एमः ए० डी लिट० का लेख । । २-देखये मिश्रबन्धु बिनोद प्रथम भाग का पृ० २२३ ।
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