पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१८८

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( १७४ ) माआ जाल पसयो अरे बाधेलि माया हरिणी । सद गुरु बोहें बूझिरे काढूं कहिनि । भुसुक छाया--- जो तोहिं भुसूक जाना मारहु पंच जना । नलिनी बन पइसते होहिसि एक मना । जीवत भइल बिहान मरि गइल रजनी । हाड़ बिनु मासे भुसुक पदम बन पइसयि । माया जाल पसारे अरे बाँधेलि माया हरिणी । सदगुरु बोधे बूझी कासों कथनी । भुमुक अणिमिषिलोअण चित्तनिरोधे पवन णिमहइ सिरिगुरु बोहे पवन बहइ सो निच्चल जब्बें जोइ कालु करइ किरेतब्वें। छाया अनिमिष लोचन चित्त निरोधइ श्री गुरु बोधे । पवन बहै सो निश्चल जबै जोगी काल करै का तबै । सरहपा आगम बेअ पुराणे पंडिउ मान बहन्ति । पक्क सिरी फल अलिअ जिमि बाहेरित भ्रमयंति। अर्थ- आगम वेद पुराण में पंडित अभिमान करते हैं । पके श्री फल के बाहर जैसे भ्रमर भ्रमण करते हैं। करहपा* कबीर साहब स्वामी रामानन्द के चेले और वैष्णव धर्मावलम्वी बतलाये जाते हैं। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है वे कहते हैं—'कबीर गुरु बनारसी सिक्ख समुन्दर तीर'। उन्होंने वैष्णवत्व का पक्ष लेकर शाक्तों को खरी खोटी भी सुनाई है । यथा- देखिये सरस्वती जून सन् १९३१ का पृष्ट ७१५ ७१७ ७१८ ७१९