की रचनाओं के अनुकरण से लिखी गई हैं। सिद्धोंने योग और ज्ञान सम्बन्धी बातें भी अपने ढंग से कही हैं। उनको अनेक रचनाओं पर उनका प्रभाव भी देखा जाता है। जून सन् १९३१ की सरस्वती के अंक में प्रकाशित चौरासी सिद्ध नामक लेख में बहुत कुछ प्रकाश इस विषय पर डाला गया है। विषय-बोध के लिये उसका कुछ अंश मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूं:--
"इन सिद्धों की कवितायें एक विचित्र आशय की भाषा को लेकर होती हैं। इस भाषा को संध्या भाषा कहते हैं, जिसका अर्थ अंधेरे (वाम मार्ग) में तथा उँजाले (ज्ञान मार्ग. निर्गुण) दोनों में लग सके । संध्या भाषा को आज कल के छायावाद या रहस्यवाद की भापा समझ सकते हैं।"
'भावना और शब्द-साखी में कबीर से लेकर गधा स्वामी तक के सभी संत चौरासी सिद्धां के ही वंशज कहे जा सकते हैं । कबीर का प्रभाव जैसे दूसरे संतों पर पड़ा और फिर उन्होंने अपनी अगली पीढ़ी पर जैसे प्रभाव डाला, इसको श्रृंखलाबद्ध करना कठिन नहीं है । परन्तु कबीर का सम्बन्ध सिद्धों से मिलाना उतना आसान नहीं है, यद्यपि भावनाएं, रहस्योक्तियां, उल्टी बोलियों की समानतायें बहुत स्पष्ट हैं।"
इसी सिलसिले में सिद्धों की रचनायें भी देख लीजिये--
१-(मूल) निसि अंधारी सुसार चारा ।
अमिय भखअ मूषा करअ अहारा।
मार रे जोइया मृषा पवना ।
जेण तृटअ अवणा गवणा ।
भव विदारअ मृसा रवण अगति ।
चंचल मूसा कलियाँ नाश करवाती।
काला मूसा ऊहण बाण ।
गअणे उठि चरअ अमण धाण ।