पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१८

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विस्तीर्ण होता गया होगा। धीरे धीरे वर्णात्मक स्वरूप को धारण करके यही ध्वनियां मानवीभाषा के रूपको प्राप्त हो गई होंगी। इस प्रकार हमारी भाषा की नींव आदि में इन्हीं स्वाभाविक ध्वनियों पर रखी गई होगी। इस सिद्धान्त का नाम हम मनोराग-व्यञ्जक-शब्द-मूलकता-वाद रख सकते हैं"।

उभय पक्षने अपने अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में ग्रन्थ के ग्रन्थ लिख डाले हैं, और बड़ा गहन विवेचन इस विषय पर किया है। परन्तु आजकल अधिकांश सम्मति यही स्वीकार करती है कि भाषा मनुष्यकृत और क्रमशः विकास का परिणाम है। श्रीयुत बाबू नलिनी मोहन सान्याल एम॰ ए॰ अपने भाषा विज्ञान की प्रवेशिका में यह लिखते हैं—

"मैक्समूलर ने कहा है कि हम अभी तक नहीं जानते कि भाषा क्या है यह ईश्वर दत्त है, या मनुष्यनिर्मित या स्वभावज। परन्तु उन्होंने पीछे से इसको स्वभावज माना है, और बाद के दूसरे विद्वानों ने भी इसको स्वभावज प्रमाणित किया है"।

भाषा चाहे स्वभावज हो अथवा मनुष्यकृत, ईश्वर को उसका आदि कारण मानना ही पड़ेगा, क्योंकि स्वभाव उसका विकास है और मनुष्य स्वयं उसकी कृति है। मनुष्य जिन साधनों के आधार से संसार के कार्यकलाप करने में समर्थ होता है, वे सब ईश्वरदत्त हैं, चाहे उनका सम्बंध बाह्य जगत् से हो अथवा अन्तर्जगत् से। जहां पंचभूत और समस्त दृश्यमान जगत में उसकी सत्ता का विकास दृष्टिगत होता है, वहां मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार ज्ञान विवेक विचार आदि अन्तः प्रवृत्तियों में भी उसकी शक्ति कार्य करती पाई जाती है। ईश्वर न तो कोई पदार्थविशेष है, न व्यक्तिविशेष, वरन जिस सत्ता के आधार से समस्त संसार, किसी महान् यंत्र के समान परिचालित होता रहता है, उसीका नाम है ईश्वर। संसार स्वयं विकसित अवस्था में है, किसी बीज ही से इसका विकास हुआ है, इसी प्रकार मनुष्य भी किसी विकास का ही परिणाम है, किन्तु उसका विकास संसार विकास के अन्तर्गत है। कहने वाले कह सकते हैं कि मनुष्य लाखों वर्ष के विकास का फल है, अतएव वह ईश्वर कृत नहीं। किन्तु यह कथन ऐसा ही होगा, जैसा बहुवर्ष व्यापी विकास के परिणाम किसी पीपल के प्रकाण्ड वृक्ष को देख कर कोई