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हरि मरिहैं तो हमहूं मरिहैं,
हरि न मरै हम काहे कूं मरि हैं।
कहै कबीर मन मनहिं मिलावा,
अमर भये सुख सागर पावा।
२—काहे रे मन दह दिसि धावै,
विषया सँगि संतोष न पावै।
जहाँ जहाँ कलपै तहाँ तहाँ बंधना,
रतन को थाल कियो तै रंधना।
जो पै सुख पइयत इन माहीं,
तौ राज छाड़ि कत बन को जाहीं।
आनन्द सहत तजौ विष नारी,
अब क्या झीषै पतित भिषारी।
कह कबीर यहु सुख दिन चारि,
तजि बिषया भजि चरन मुरारि।
३—बिनसि जाइ कागद की गुड़िया,
जब लग पवन तबै लगि उड़िया।
गुड़िया को सबद अनाहद बोलै,
खसम लिये कर डोरी डोलैं।
पवन धक्यो गुड़िया ठहरानी,
सीस धुनै धुनि रोवै प्रानी।
कहै कबीर भजि सारँग पानी,
नहिं तर ह्वै है खैंचा तानी।

मेरा विचार है कि जो पद्य मैंने ग्रन्थ साहब से उद्धृत किये हैं और जो पद्य कबीर प्रन्थावली से लिये हैं उनकी भाषा एक है, और मैं कबीर