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यह पन्द्रहवीं शताब्दी कबीर साहब की कविताओं का रचना-काल भी है। कबीर साहब की रचनाओं के विषय में अनेक तर्क-वितर्क हैं। उनकी जो रचनायें उपलब्ध हैं उनमें बड़ी विभिन्नता है। इस विभिन्नता का कारण यह है कि वे स्वयं लिखे-पढ़े न थे। इस लिये अपने हाथ से वे अपनी रचनाओं को न लिख सके। अन्य के हाथों में पड़ कर उनकी रचनाओं का अनेक रूपों में परिणत होना स्वाभाविक था। आज कल जितनी रचनायें उनके नाम से उपलब्ध होती हैं उनमें भी मीन मेख है। कहा जाता है कि सत्य लोक पधार जाने के बाद उनकी रचनाओं में लोगों ने मनगढ़न्त बहुत सी रचनायें मिला दी हैं और इसी सूत्र से उनकी रचना की भाषा में भी विभिन्नता दृष्टिगत होती है। ऐसी अवस्था में उनकी रचनाओं को उपस्थित कर इस बात की मीमांसा करना कि पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी का क्या रूप था दुस्तर है। मैं पहले लिख आया हूं कि भ्रमण शील सन्तों की बानियों में भाषा की एक रूपता नहीं पाई जाती। कारण यह है कि नाना प्रदेशों में भ्रमण करने के कारण उनकी भाषामें अनेक प्रान्तिक शब्द मिले पाये जाते हैं। कबीर साहब की रचना में अधिकतर इस तरह की बातें मिलती हैं। इन सब उलझनों के होने पर भी कबीर साहब की रचनाओं की चर्चा इस लिये आवश्यक ज्ञात होती है कि वे इस काल के एक प्रसिद्ध सन्त हैं और उनकी बानियों का प्रभाव बहुत ही व्यापक बतलाया गया है कबीर साहब की रचनाओं में रहस्यवाद भी पाया जाता है, जिसको अधिकांश लोग उनके चमत्कारों से सम्बन्धित करते हैं और यह कहते हैं कि ऐसी रचनायें उनका निजस्व हैं जो हिन्दी संसार की किसी कविकी कृति में नहीं पायी जाती। इस सूत्र से भी कबीर साहब की रचनाओं के विषय में कुछ लिखना उचित ज्ञात होता है, क्योंकि यह निश्चित करना है कि इस कथन में कितनी सत्यता है। विचारना यह है कि क्या वास्तव में रहस्यवाद कबीर साहब की उपज है या इसका भी कोई आधार है।
काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 'कबीर-ग्रन्थावली' नामक एक ग्रन्थ कुछ वर्ष हुये, एक प्राचीन ग्रन्थ के आधार से प्रकाशित किया है। प्राचीन ग्रन्थ सम्बत् १५६१ का लिखा हुआ है और अब तक उक्त सभा के यह