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(विद्यापति का) श्रेष्ठ गौरव है। अपने समस्त पदों में उन्होंने श्रीमती राधिका का प्रेम भगवान कृष्णचन्द्र के प्रति वर्णन किया है। इस रूपक के द्वारा उन्होंने यह विज्ञापित किया है कि किस प्रकार आत्मा का परमात्मा के प्रति प्रेम सम्बन्ध है।"

विद्यापति शैव थे। इसलिये सम्भव है कि यह तर्क उपस्थित किया जाय कि एक शैव की गधा-कृष्ण की मूर्ति में भक्ति कैसी? किन्तु इस विचार में संकीर्णता है। कवि का हृदय इतना संकीर्ण नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदास यदि सीताराम के अनन्य उपासक होकर भगवान् भूतनाथ की भक्ति कर सकते हैं तो शिव के अनन्य भक्त होकर कविवर विद्यापति राधा-कृष्ण की भक्ति क्यों नहीं कर सकते। वास्तव बात यह है कि अधिकांश गृहस्थ हिन्दू विद्वान् पञ्चदेवोपासक होता है। उसमें वह भद-भावना नहीं होती जो किसी कट्टर शैव या वैष्णव में पाई जाती है। मैं समझता हूं विद्यापति इस दोष से मुक्त थे और इसीलिये उनको इस प्रकार राधा-कृष्ण का प्रेम वर्णन करने में कोई बाधा नहीं हुई। उनके पद्यों में ही युगल मूर्ति के भक्ति भाव के प्रमाण मौजूद हैं। उनके पद में जो माधुर्य्य विद्यमान है उसको माधुर्य उपासना का मर्मज्ञ ही प्राप्त कर सकता है। मैं सोचता हूं कि उस समय पौराणिक धर्म विशेष कर श्री मद्भागवत जैसे वैष्णव ग्रन्थों के प्रभाव से वैष्णव धर्म का जो उत्थान देश में नाना रूपों से हो रहा था उसी के प्रभाव से बंगाल प्रान्त में चण्डीदास की, और बिहार भूमि में विद्यापति की रचनाएं प्रभावित हैं।

जो 'कुछ अब तक विद्यापति के विषय में लिखा गया उससे यह पाया जाता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उन्होंने अपनी अभूतपूर्व कविताओं की रचना कर के जहाँ पदावली रचना की प्रणाली हिन्दी भाषा में चलायी वहाँ उसको राधा कृष्ण की प्रेममयी लीलाओं के सरस वर्णन से भी अलंकृत किया। हिन्दी में भावमय शृंगारिक रचनाओं का आरम्भ भी उन्हीं से होता है और उन्हीं से ऐसे सरस सुन्दर पद-विन्यास हिन्दी को प्राप्त हुये हैं जैसे उसको आज तक कतिपय हिन्दी आकाश के उज्ज्वल नक्षत्रों से ही प्राप्त हो सके हैं।