पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१६४

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को छोड़ता हूं। इसके बाद पन्द्रहवीं शताब्दी प्रारम्भ होती है। चौदहवीं शताब्दी का अन्त और पन्द्रहवीं शताब्दी का आदि मैथिल-कोकिल विद्यापति का काव्य-काल माना जाता है। अतएव अब मैं यह देखूंगा कि उनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा का क्या रूप पाया जाता है। उनकी रचनाओं के विषय में अनेक भाषा-मर्मज्ञों का यह विचार है कि वे मैथिली भाषा की हैं। किन्तु उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि जितना उन में हिन्दी भाषा के शब्दों का व्यवहार है उतना मैथिली भाषा के शब्दों का नहीं। अवश्य उनमें मैथिली भाषा के शब्द प्रायः मिल जाते हैं, परन्तु उनकी भाषा पर यह प्रान्तिकता का प्रभाव है, वैसा ही जैसा आज कल के बिहारियों की लिखी हिन्दी पर। बंगाली विद्वान विद्यापति को बंगभाषा का कवि मानते हैं, यद्यपि उनकी भाषा पर बंगाली भाषा का प्रभाव नाम मात्र को पाया जाता है। ऐसी अवस्था में विद्यापति को हिन्दी भाषा का कवि मानने का अधिक स्वत्त्व हिन्दी भाषा भाषियों ही को है और मैं इसी सूत्र से उनको चर्चा यहां करता हूं। उन्होंने अपभ्रंश भाषा में भी दो ग्रंथ लिखे हैं। उनमें से एक का नाम 'कीर्तिलता' और दूसरी का नाम 'कीर्तिपताका' है। कीर्तिलता छप भी गई है। उनकी सँस्कृत की रचनायें भी हैं जो उनको सँस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् सिद्ध करती हैं। जब इन बातों पर दृष्टि डालते हैं तो उनको सर्वतोमुखी प्रतिभा सामने आ जाती है जो उनके लिये हिन्दी भाषा में सुन्दर रचना करना असंभव नहीं बतलाती। मेरी ही सम्मति यह नहीं है। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले सभी सज्जनों ने इनको हिन्दी भाषा का कवि माना है। फिर मैं इनको इस गौरव से वंचित करूँ तो कैसे करूँ?

मेरा विचार है कि विद्यापति ने बड़ी ही सरस हिन्दी में अपनी पदावली की रचना की है। उनके पद्योंसे रस निचुड़ा पड़ता है। गीत गोविन्दकार वीणापाणि के वरपुत्र जयदेव जी की मधुर कोमल कान्त पदावली पढ़ कर जैसा आनन्द अनुभव होता है वैसा ही विद्यापति की पदावलियों का पाठ कर। अपनी कोकिल-कण्ठता ही के कारण वे मैथिल-कोकिल कहलाते हैं। उनके समय में हिन्दी भाषा कितनी परिष्कृत और प्राञ्जल हो गयी थी