पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/१६२

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विक था। हिन्दी कविता में आगे चलकर हमको प्रेम-धारा, भक्ति-धारा एवं सगुण-निर्गुण विचार-धारा बड़े वेग से प्रवाहित होती दृष्टिगत होती है, किन्तु इन सबसे पहले उसमें ज्ञान और योग-धारा उसी सबलता से बही थी, जिसके आचार्य्य महात्मा गोरखनाथ जी हैं। इन्हीं के मार्ग को अवलम्वन कर बाद को अन्य धाराओं का हिन्दी भाषा में विकास हुआ। योग और ज्ञान का विषय भी ऐसा था जिसमें संस्कृत तत्सम शब्दों से अधिकतर काम लेने की आवश्यकता पड़ी। इसीलिये उनकी रचनाओं में सूर्य, 'वाद-विवाद', 'पवन', 'गोटिका', गगन', 'आलिंगन', 'निद्रा', 'संसार', 'आत्मा', 'गुरुदेव', 'सुन्दर', 'सर्वे' इत्यादि का प्रयोग देखा जाता है। फिर भी उनमें अपभ्रंश अथवा प्राकृत शब्द मिल ही जाते हैं जैसे 'अकास' , 'महियल', अजरावर' इत्यादि। हिन्दी तद्भव शब्दों की तो इनकी रचनाओं में भरमार है और यही बात इनकी रचनाओं में हिन्दीपन की विशेषता का मूल है। वे अपनी रचनाओं में ण' के स्थान पर 'न' का ही प्रयोग करते हैं और यह हिन्दी भाषा की विशेषता है। कभी कभी 'न' के स्थान पर णकार का प्रयोग भी करते हैं। यह अपभ्रंश भाषा का इनकी रचनाओं में अवशिष्ठांश है अथवा इनकी भाषा पर पंजाबी भाषा के प्रभाव का सूचक है, जैसे 'पित्रण', 'पाणी,' 'अणखाए', 'आसण' इत्यादि॥

वेदान्त धर्म के प्रवर्त्तक स्वामी शंकराचार्य थे। उनका वेदान्त वाद अथवा अद्वैतवाद व्यवहार क्षेत्र में आ कर शिवत्व धारण कर लेता है। इसी लिये उनका सम्प्रदाय शैव माना जाता है। भगवान शिव की मूर्ति जहाँ गम्भीर ज्ञानमयी है वहीं विविध विचित्रतामयी भी। इसीलिये उसमें यदि निर्गुणवादियों‌ के लिये विशेष विभूति विद्यमान है तो सगुणोपासक समूह के लिये भी बहुत कुछ देवी ऐश्वर्य्य मौजूद है। यही कारण है कि शैव सम्प्रदाय का वह परम अवलम्ब है। गोरखनाथ की सँस्कृत और भाषा की रचनाओं में वेदान्तवाद की विशेष विभूतियां जहां दृष्टिगत होती हैं, वहीं शिव के उपासना की ऐसी प्रणालियां भी उपलब्ध होती हैं जो सर्व साधारण को उनकी ओर आकर्षित करती हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण गोरखनाथ जी ने शैव धर्म का आश्रय ले कर उस समय हिन्दू धर्म के संरक्षण का