पवित्र वेदों में भी इस प्रकार के वाक्य पाये जाते हैं—यथा
"यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः"
'मैंने कल्याणकारीवाणीमनुष्यों को दी'
अध्यापक मैक्समूलर इस विषय में क्या कहते हैं, उसको भी सुनिये—"भिन्न भिन्न भाषा परिवारों में जो ४०० या ५०० धातु उनके मूलतत्व-रूप से शेष रह जाते हैं, वे न तो मनोराग व्यञ्जकध्वनियाँ हैं, और न केवल अनुकरणात्मक शब्द ही। हम उनको—वर्णात्मक शब्दों का साँचा कह सकते हैं। एक मानसविज्ञानी या तत्वविज्ञानी उनकी किसी प्रकार की व्याख्या करे—भाषाके विद्यार्थी के लिये तो ये धातु अन्तिम तत्व ही हैं। प्लेटो के साथ हम यह कह सकते हैं कि वे स्वभाव से ही विद्यमान हैं, यद्यपि प्लेटो के साथ हम इतना और जोड़ देंगे कि, 'स्वभाव से' कहने से हमारा आशय है 'ईश्वर की शक्ति से'"[१]
प्रोफ़ेसर पाट कहते हैं
"भाषा के वास्तविक स्वरूप में कभी किसी ने परिवर्तन नहीं किया, केवल बाह्य स्वरूप में कुछ परिवर्तन होते रहे हैं, पर किसी भी पिछली जाति ने एक धातु भी नया नहीं बनाया। हम एक प्रकार से वही शब्द बोल रहे हैं, जो सर्गारम्भ में मनुष्य के मुँह से निकले थे" २ जैक्सन-डेविस कहते हैं—भाषा भी जो एक आन्तरिक और सार्वजनिक साधन है, स्वाभाविक और आदिम है। "भाषा के मुख्य उद्देश्य में उन्नति होना कभी संभव नहीं। क्योंकि उद्देश सर्वदेशी और पूर्ण होते हैं, उनमें किसी प्रकार भी परिवर्तन नहीं हो सकता। वे सदैव अखण्ड और एक रस रहते हैं"।[२]
इस सिद्धान्त के विरुद्ध जो कहा गया है, उसे भी सुनिये—
डार्विन और उसके सहयोगी, 'हक्सले' 'विजविड' और 'कोनिनफ़ार' यह कहते हैं "भाषा ईश्वर का दिया हुआ उपहार नहीं है, भाषा शनैः शनैः ध्वन्यात्मक शब्दों और पशुओं की बोली से उन्नति करके इस दशा को पहुंची है"