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अम्मा मेरे मामूँ को भेजो जी कि सावन आया।
बेटो तेरा मामूँ तो बाँकारी कि सावन आया।

दो दोहे भी देखिये, कितने सुन्दर हैं।

१—खुसरो रैनि सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को, दोऊ भये इक रंग।
२—गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल ख़ुसरो घर आपने, रैनि भई चहुँदेस

इच्छा न होने पर भी खुसरो की कविता के विषय में इतना अधिक लिख गया। बात यह है कि खुसरो की विशेषताओं ने ऐसा करने के लिये बिवश किया। यदि उन्होंने सब से पहले बोलचाल की साफ़ सुथरी चलती हिन्दी का आदर्श उपस्थित किया तो शब्द भी तुले हुए रक्खे। न तो उन को तोड़ा-मरोड़ा, न बदला और न उनके वर्गों को द्वित्त बना कर उन्हें संयुक्त शब्दों का रूप दिया। अपनी रचना में भाव भी वे ही भर जो देश भाषा के अनुकूल थे। प्राकृत शब्दों का प्रयोग भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। परन्तु वे ऐसे हैं जो सर्वथा हिन्दी के रंग में ढले हुए हैं, जैसे पीत उज्जल और रैन इत्यादि। प्राकृत में शकार के स्थान पर स हो जाता है इन्होंने भी अपनी रचना में इस नियम का पालन किया है, जैसे 'सोभा', 'स्याम', 'केस', 'देस' इत्यादि। संस्कृत के तत्सम शब्द भी इनकी रचना में हैं परन्तु चुने हुए। हिन्दी आरम्भिक काल से ही इस प्रणाली को ग्रहण करती आई है। यह बात इनके इस प्रकार के प्रयोगों से भी प्रकट होती है। यह उनके कवि हृदय की विशेषता है कि जो तत्सम शब्द संस्कृत के इन के पद्य में आये हैं वे कोमल और हिन्दी के तद्भव शब्दों के जोड़ के हैं। उसे मुख, मुरलीधर, रंजन, अधीन, नाद ध्यान साधु पाप इत्यादि। ये सब ऐसी ही विशेषताएँ हैं जो माध्यमिक काल के रचयिताओं में खुसरो को एक विशेष स्थान प्रदान करती हैं। खुसरो का निवास दिल्ली में था। मेरा विचार है कि उसके अथवा