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६—स्यामबरनपीताम्बर काँधे मुरली धर नहिं होइ।
बिन मुरली वह नाद करत है, बिरला बूझै कोइ।
७—उज्जल बरन अधीनतन, एक चित्त दो ध्यान।
देखत में तो साधु है, निपट पाप को खान।
८—एक नार तरवर से उतरी मा सो जनम न पायो।
बाप को नांव जो वासे पूछ यो आधो नाँव बतायो।
आधो नावँ बतायो खुसरो कौन देस की बोली।
वाको नाँव जो पूछयो मैंने अपने नांव न बोली।
९—एक गुनी ने यह गुन कीना हरियल पिँजरे में दे दीना।
देखो जादूगर का हाल डाले हरा निकाले लाल।
इन पद्यों में नम्बर ५ में ४ तक के पद्य ऐसे हैं जो शुद्ध खड़ी बोली में लिखे गये हैं, नम्बर ५ और ६ शद्ध ब्रजभाषा के हैं और नम्बर ७ में ९ तक के ऐसे हैं कि जिनमें खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा दोनों का मिश्रण है। मैं समझता हूँ कि इस अन्तर का कारण उस भेद की अनभिज्ञता है जो खड़ी बोली को ब्रजभाषा से अलग करती है। इसके प्रमाण वे पद्य भी हैं जिनमें दोनों भाषाओं का मिश्रण है। उस समय खड़ी बोली या ब्रजभाषा का कोई विवाद नहीं था और न ऐसे नियम प्रचलित थे जो एक को दूसरे से अलग करते। वे हिन्दी भाषा के सब प्रकार के प्रयोगों को एक ही समझते थे। इसलिये इतना सूक्ष्म विचार न कर सके। यह संयोग से ही हो गया है कि कुछ पद्य शुद्ध खड़ी बोली के और कुछ ब्रजभाषा के बन गये हैं। उनकी दृष्टि इधर नहीं थी। इस समय जब खड़ी बोल चाल और ब्रजभाषा की धाराएं अलग अलग बह रही हैं, उनकी रचनाओं की इस त्रुटि पर चाहे विशेष दृष्टि दी जावे, परन्तु उस समय उन्होंने हिन्दी भाषा सम्बन्धी जैसी मर्मज्ञता, योग्यता और निपुणता दिखलाई है वह उल्लेखनीय है। उनके पहले के कवियों की रचनाओं से उनकी रचनाओं में अधिकतर प्राञ्जलता है, जो हिन्दी के भाण्डार पर उनका प्रशंसनीय