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२—हय हथ्यि देत संखय न मन खग्ग मग्ग खूनी बहै।
३—छपी सेन सुरतान, मुठ्ठि छुट्टिय चावद्धिसि।
मनु कपाट उद्धर्‌यो, कूह फुट्टिय दिसि विद्दिसि।
मार मार मुष किन्न, लिन्न चावण्ड उपारे।
परे सेन सुरतान, जाम इक्कह परि धारे।
गल वत्थ घत्त गाढ़ो ग्रहौ, जानि सनेही भिंटयौ।
चामण्डराइ करवर कहर, गौरी दल बल कुट्टियौ।

पहले मैं जिन अपभ्रंश पद्यों को लिख आया हूं उनसे इनको मिलाइये देखिये कितना साम्य है। ज्ञात होता है कि ये उन्हीं की छाया हैं। इनपद्यों में यह देखा जाता है कि जहां प्राकृत अथवा अपभ्रंश के 'समग्ग', 'कज्ज', 'जग्ग 'अठ्ठ' 'अप्प मद्धि' 'पसाय' 'अद्ध' 'पुत्त' 'हथ्थि', 'खग्ग', 'मग्ग' मुट्ठि' आदि प्रातिपदिक शब्द आये हैं वहीं 'छुट्ठि', 'फुट्टिय' 'भिंटयौ' 'कुट्टियौ' आदि क्रियायें भी आई हैं। इनमें 'हय' 'कपाट', 'दल 'बल', इत्यादि संस्कृत के तत्सम शब्द भी मौजूद हैं और यह कवि द्वारा गृहीत उसकी भाषा की विशेषता है। प्राकृत अथवा अपभ्रंश में प्रायः संस्कृत के तत्सम शब्दों का अभाव देखा जाता है। विद्वानों ने प्राकृत और अपभ्रंश की यह विशेषता मानी है कि उसमें संस्कृत के तत्सम शब्द नहीं आते। परंतु चन्द की भाषा बतलाती है कि उसने अपने पद्यों में संस्कृत तत्सम शब्दों के प्रयोग की चेष्टा भी की है। उसने 'नकार' के स्थान पर 'णकार' का प्रयोग प्रायः नहीं किया है और यह भी हिन्दी भाषा का एक विशेष लक्षण है। प्राकृत और अपभ्रंश में नकार का भी एक प्रकार से अभाव है। डिंगल अथवा राजस्थानी में भी प्रायः नकार का प्रयोग नहीं होता देखा जाता। इन पद्यों में कुछ ऐसी क्रियाएं भी आई हैं जो ब्रजभाषा की मालूम होती हैं, वे हैं 'उडि चल्यो', 'आयो' 'करि', आदि और ये सब वे ही विशेषतायें हैं जो प्राकृत और अपभ्रंशसे हिन्दी भाषा को अलग करती और उसके शनैः शनैः विकसित होने का प्रमाण देती हैं। मैं कुछ ऐसे पद्यों को