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आरम्भिक काल का प्रधान कवि चन्द है जो हमारे हिन्दी संसार का चासर है। वह भी इसी शताब्दी में हुआ मैं कुछ उसकी रचनायें भी उपस्थित करना चाहता हूं, जिससे यह स्पष्टतया प्रकट होगा कि किस प्रकार अपभ्रंश से हिन्दी भाषा रूपान्तरित हुई है। कुछ विद्वानों की यह सम्मति है कि चन्द कवि कृत पृथ्वीराज रासो की रचना पन्द्रहवीं या सोलहवीं शताब्दी की है। पृथ्वीराज रासो में बहुत सी रचनायें ऐसी हैं जो इस विचार को पुष्ट करती हैं। परन्तु मेरा विचार है कि इन प्रक्षिप्त रचनाओं के अतिरिक्त उक्त ग्रंथ में ऐसी रचनायें भी हैं जिनको हम बारहवीं शताब्दी की रचना निस्संकोच भाव से मान सकते हैं। इस विषय में बहुत कुछ तर्क-वितर्क हो चुका है और अब तक इसकी समाप्ति नहीं हुई। तथापि ऐतिहासिक विशेषताओं पर दृष्टि रख कर पृथ्वीराज रासो की आदिम रचना को बारहवीं शताब्दी का मानना पड़ेगा। बहुत कुछ विचार करने पर मैं इस सिद्धान्त पर पहुंचा हूं कि पृथ्वीराज रासो में प्राचीनता की जो विशेषतायें मौजूद हैं वे वीर गाथा काल की किसी पुस्तक में स्पष्ट रूप से नहीं पायी जातीं। कुछ वर्णन इस ग्रन्थ के ऐसे हैं जिनको प्रत्यक्षदर्शी ही लिख सकता है। कोई इतिहासज्ञ यह नहीं कहता कि चन्दबरदाई पृथ्वीराज के समय में नहीं था। कुछ ऐतिहासिक घटनाएं इस ग्रन्थ की ऐसी हैं जो पृथ्वीराज और चन्दबरदाई के जीवन से विशेष सम्बन्ध रखती हैं। जब तक उनको असत्य न सिद्ध किया जाय तब तक पृथ्वीराज रासो को कृत्रिम नहीं कहा जा सकता। किसी भाषा की आदिम रचनाओं में जो अप्राञ्जलता और शब्द विन्यास का असंयत भाव देखा जाता है वह पृथ्वीराज रासो में मिलता है। इसलिये मेरी यह धारणा है कि इस ग्रन्थ का कुछ आदिम अंश अवश्य है जिसमें बाद को बहुत कुछ सम्मिश्रण हुआ। इस आदिम अंश में से ही उदाहरण स्वरूप कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं:—

१—उड़ि चल्यो अप्प कासी समग्ग
आयो सु गंग तट कज्ज जग्ग

सत अठ्ठ खण्ड करि अंग अब्बि, ओमें सु अप्प वर मद्धि हबि।
मंग्यो सु ईस यँहि बर पसाय, सत अद्ध पुत्त अवतरन काय।