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"एक उड़ीसा को धनी बचन हमारइ तू मानि जु मानि।
ज्यों थारइ सांभर उग्गहइ राजा उणि भरि उगहइ हीरा खानि।
जीभ न जीभ विगोयनो दव दाधा का कुपली मेल्हइ।
जीभ का दाधा नुपाँगुरइ नाल्हकहइ सुण जइ सब कोइ।"
इस पद्य में भी अपभ्रंश की झलक बहुत कुछ मौजूद है। इसमें अधिकांश राजस्थानी भाषा का रंग है। इसी कारण अपभ्रंश की भाषा से वह बहुत कुछ मिलती जुलती है। अब तक राजस्थानी भाषा पर अपभ्रंश भाषा का बहुत कुछ प्रभाव अवशिष्ट है। फिर भी उसमें ब्रजभाषा के शब्दों का इतना मेल है कि उसको अन्य भाषा नहीं कह सकते। पंडित रामचन्द्र शुक्ल बीसल देव रासो की भाषा के विषय में यह लिखते हैं:—
"भाषा की परीक्षा कर के देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं राजस्थानी है, जैसे 'सूकइ छै' (सूखता है), पाटण थीं (पाटन से), भोजतण (भोज का), खण्ड खण्ड रा (खण्ड खण्ड का), इत्यादि। इस ग्रन्थ से एक बात का आभास अवश्य मिलता है। वह यह कि शिष्ट काव्य-भाषा में ब्रज और खड़ी बोली के प्राचीन रूप का ही राजस्थान में भी व्यवहार होता था। साहित्य की सामान्य भाषा हिन्दी ही थी जो पिंगल भाषा कहलाती थी। बीसल देव रासो में बीच बीच में बराबर इस साहित्यिक भाषा (हिन्दी) को मिलाने का प्रयत्न दिखायी पड़ता है। भाषा की प्राचीनता पर विचार करने पहले यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि गाने की चीज़ होने के कारण इसकी भाषा में समयानुसार बहुत कुछ फेरफार होता आया। पर लिखित रूप में रक्षित होने के कारण इसका पुराना ढाँचा बहुत कुछ बचा हुआ है। उदाहरण के लिये देखिये 'मेलबि'=मिलाकर, जोड़ कर। चितई=चित्त में। रणि=रण में। प्रापिजयि=प्राप्त हो या किया जाय। ईणी विधि=इस विधि। ईसउ=ऐसा। बालहो=बाला का। इसी प्रकार नयर (नज़र), पसाउ (प्रसाद), पयोहर (पयोधर) आदि प्राकृत शब्द भी हैं जिनका प्रयोग कविता में अपभ्रंश काल से ले कर पीछे तक होता रहा।"[१]
- ↑ देखिये हिन्दी साहित्य के इतिहास का पृष्ठ ३० और ३१।