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गीता का अनुवाद दसवें शतक का बतलाया जाता है, परन्तु उसकी भाषा बिल्कुल माध्यमिक काल की मालूम होती है। इस लिये पं॰ रामचन्द्र शुक्ल से सहमत हो कर मैं उसको आरम्भिक काल का कवि नहीं मानता। सब से पहले आरम्भिक काल की प्राप्य रचना का उदाहरण मेरे विचारानुसार, जिन बल्लभ सूरि का है जो बारहवें शतक के आरम्भ में हुआ। उसकी रचना के कुछ पद्य ये हैं:—
किं कप्पतरु रे अयाण चिन्तउ मणभिन्तरि।
किं चिंतामणि कामधेनु आराहउ बहुपरि।
चित्राबेली काज किसे देसंतर लंघउ।
रयण रासि कारण विसेइ सायर उल्लंघउ।
इस पद्य को आप ऊपर के उन पद्यों से मिलाइये जो अपभ्रंश भाषा के हैं, तो यह ज्ञात हो जायगा कि किस प्रकार अपभ्रंश से क्रमशः हिन्दी भाषा का विकास होरहा था। प्राकृत और अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार हो जाता है। इस पद्य में भी आप देखेंगे कि 'अयाण', 'मण', 'रयण' आदि में इसी प्रकार का प्रयोग हुआ है। अपभ्रंश के पांचवें पद्य में 'देसन्तरिय' का जैसा प्रयोग है, इस पद्य के 'देसन्तर' का भी वैसा ही प्रयोग है। 'भिंतरि','लंघउ', 'उल्लंघउ', 'सायर' इत्यादि शब्दों का भी व्यवहार अपभ्रंश रचना के अनुसार ही हुआ है। प्राकृत में, और अपभ्रंश में भी 'ध' का 'ह' हो जाता है। इस पद्य में भी 'आराधउ' का 'आराहउ' लिखा गया। 'कल्पतरु' के स्थान पर 'कप्पतरु' का प्रयोग भी प्राकृत भाषा के नियमानुसार है। यह सब होने पर भी उक्त पद्य में हिन्दीपन की झलक भी 'कामधेनु' 'काज' और 'किसे' आदि शब्दों में मिलती है जो विकास प्रणाली का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
इसी शताब्दी के दूसरे कवि नरपति नाल्ह की भी कुछ रचनाओं को देखिये। यह कवि बीसलदेव रासो नामक ग्रन्थ का रचयिता है। अधिकतर, विद्वानों ने इसकी रचना को कुछ तर्क-वितर्क के साथ बारहवें शतक का माना है।