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जिन ग्रन्थकारों का नाम ऊपर लिया गया, इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनके किसी ग्रन्थ का नाम तक नहीं बतलाया गया, कुछ ऐसे हैं जिनके ग्रन्थों का नाम लिखा गया पर वे अप्राप्य हैं, जिन लोगों के ग्रन्थ मिलते हैं, जिनका नाम भी बतलाया गया, वे उस कोटि के कवि और ग्रन्थकार नहीं ज्ञात होते, जिनकी रचनाओं का विशेष स्थान होता है। भुआल कवि की भगवद्गीता ही को लीजिये। प्रथम तो वह अनुवाद है, दूसरे उसके अनुवाद की भाषा ऐसी है कि जिस पर दृष्टि रख कर पं॰ रामचन्द्र शुक्ल[] उसे दशवीं शताब्दी का ग्रन्थ मानने को तैयार नहीं हैं। अन्य प्राप्य ग्रन्थों के विषय में भी ऐसी ही बातें कही जा सकती हैं; उनमें कोई ऐसा नहीं जो उल्लेखयोग्य हो अथवा जिसने ऐसी ख्याति लाभ की हो जैसी बीर-गाथा-सम्बन्धी ग्रन्थों को प्राप्त है। किम्बा जिनमें वे विशेषतायें हों जो किसी काव्य अथवा कृति को विद्वन्मण्डली में वा सुपठित जनता की दृष्टि में समादृत बनाती हों। इसलिये मेरा यह कथन ही युक्ति-संगत ज्ञात होता है कि हिन्दी साहित्य के आरम्भिक काल में बीर गाथा सम्बन्धी ग्रन्थों की ही प्रधानता रही और इन बातों पर दृष्टि रख कर डा॰ जी॰ ए॰ ग्रियर्सन आदि विद्वानों ने जो आरम्भिक काल को बीर-गाथा-काल माना है वह असंगत नहीं। इन समस्त ग्रन्थों में 'खुमान रासो' ही ऐसा है जो सबसे प्राचीन और उपलब्ध ग्रन्थ है, उसमें वीररस की ही प्रधानता है, अतएव यह कौन नहीं स्वीकार करेगा कि हिन्दी साहित्य की आदि रचना वीर गाथा से ही प्रारम्भ होती है।

कहा जाता है कि खुमानरासो में सोलहवीं शताब्दी तक की रचनायें सम्मिलित हैं, जैसा कि ग्रियर्सन साहब के निम्नलिखित उद्धरण से सिद्ध होता है।[]


  1. देखिये हिन्दी साहित्य का इतिहास पृ॰ ३०।
  2. "This is the most ancient poetic chronicle of Mewar, and was written in the ninth century. It gives a history of Khuman Raut and of his family. It was recast during the reign of Partap Singh (fl. 1575), and, as we now have it, carries the narrative down to the wars of that prince with Akbar, devoting a great portion to the seige of Chitcaur by Alāu'd-din Khilji in the thirteenth century." Modern Vernacular Literature Hindustan. p. 3