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यह है कि विजयी मुसल्मानों की विजय-सीमा ज्यों ज्यों बढ़ती गई त्यों त्यों वे प्रबल होते गये और क्रमशः भारत के अनेक प्रदेश उनके अधिकार में आते गये, क्योंकि उस समय हिन्दू जाति असंगठित थी और उसमें कोई ऐसा शक्ति सम्पन्न सम्राट् नहीं था जो जाति-मात्र को केन्द्रीभूत कर दुर्दान्त यवन दल का दलन करता। इसलिये विजयोत्साही मुसल्मान विजेताओं और विजित भारतीयों का युद्ध क्रम लगातार चलता ही रहा और इसी आधार से वीर गाथाओं की रचना भी होती रही क्योंकि उस समय हिन्दू जाति की सुप्त-शक्ति को जागरित करने की आवश्यकता थी। मेरे इस कथन का यह भाव नहीं है कि नौ सौ से तेरहवीं शताब्दी तक साहित्य के दूसरे ग्रन्थ रचे ही नहीं गये वरन् मेरा कथन यह है कि इस काल के जितने प्रसिद्ध और मान्य काव्य-ग्रन्थ हैं, उनमें वीर-गाथामय ग्रन्थों ही की अधिकता और विशेषता है। हिन्दी साहित्य का पहला उल्लेखयोग्य ग्रन्थ खुमान रासो है जो नवें शतक में लिखा गया। इसके पहले का पुष्प कवि कृत एक अलंकार ग्रन्थ बतलाया जाता है जो आठवीं शताब्दी में रचा गया है। किन्तु उसका उल्लेख मात्र है, ग्रन्थ का पता अब तक नहीं चला। यह नहीं कहा जा सकता कि पुष्प का अलंकार ग्रन्थ किस रस में लिखा गया। कविराज भूषण के "शिवराज भूषण" ग्रन्थ के समान उसका ग्रन्थ भी केवल वीर रसात्मक हो सकता है। यदि यह अनुमान सत्य हो तो यह कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा के साहित्य का आरम्भ बीर रस से ही होता है, कारण वे ही हैं जिनका निर्देश मैंने ऊपर किया है। ब्रह्मभट्ट कबि का खुमान रासो, चन्द कवि कृत पृथ्वीराज रासो, जगनिक का आल्हखंड, नरपति नाल्ह कृत बीसलदेव रासो और सारंगधर-कृत हम्मीर रासो नामक उल्लेखनीय ग्रन्थ भी इसके प्रमाण हैं।
आरम्भिककाल मैंने आठवीं शताब्दीसे तेरहवीं शताब्दी तक माना है। इन पांच सौ वर्षों में बीर-गाथा-कार कवियों और लेखकों के अतिरिक्त अन्य विषयों के ग्रन्थकार और रचयिता भी हुये हैं, अतएव मैं उन पर भी विचार करना चाहता हूं। जिससे यह निश्चित हो सके कि हिन्दी साहित्य की आरम्भिक रचनाओं के विषय में मेरा जो कथन है वह कहां तक युक्ति-