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था जो उनको सुरक्षित और समुन्नत बनाने के लिये आवश्यक था। यह बात सर्वजन विदित है कि जहां छोटे मोटे राजे परस्पर लड़ते रहते हैं वहां की साधारण जनता न तो अपना शान्तिमय जीवन बिता सकती है और न वह विभूति लाभ कर सकती है जिसे पाकर प्रजा-वृन्द समुन्नति-सोपान पर आरोहण करता रहता है। राजनैतिक अवस्था जैसी दुर्दशा ग्रस्त थी धार्म्मिक अवस्था उससे भी अधिक संकटापन्न थी। इन दिनों बौद्ध-धर्म का अपने कदाचारों के कारण प्रतिदिन पतन हो रहा था और प्राचीन वैदिकधर्म उत्तरोत्तर बलशाली बन रहा था। इस कारण वैदिक धर्मावलम्बियों और बौद्धों में ऐसा संघर्ष हो रहा था जो देश के लिये बांछनीय नहीं कहा जा सकता।

जिस समय विशाल दो धार्मिक दलों में इस प्रकार द्वन्द्व चल रहा था उस समय उत्तरीय भारत की सामाजिक अवस्था कितनी दयनीय होगी, इसका अनुभव प्रत्येक विचार-शील सहज ही कर सकता है। सामाजिकता अधिकतर धार्म्मिक भावों और पारस्परिक सम्बन्ध सूत्रों, व्यवहारों, एवं रीति रवाजों पर निर्भर रहती है। जिस स्थान की धार्मिकता कलह जाल में पड़ कर प्रतिदिन उच्छृङ्खलित और आडम्बर-पूर्ण बनती रहती है। जहां का पारस्परिक सम्बन्ध, व्यवहार, अथच रीति-नीति कपटा-चरण का अवलम्बन करती है। वहाँ की समाजिकता कितनी विपन्न अवस्था को प्राप्त होगी, इसके उल्लेख की आवश्यकता नहीं। भारतवर्ष का पतन उस समय से आज तक जिस प्रकार क्रमशः होता आता है, वही उसका प्रबल प्रमाण है।

जिस समय उत्तरीय भारत इस प्रकार विपत्तिग्रस्त था उस समय विजयोन्मत्त अरब निवासियों की विजय-वैजयन्ती ईरान में फहरा चुकी थी और वे क्रमशः भारत की ओर विभिन्न मार्गों से अग्रसर होने का पथ ढूंढ़ रहे थे। इस समय के बहुत पहले से अरब के व्यापारियों के साथ भारत का व्यापारिक सम्बन्ध चला आता था और इस सूत्र से अरब के मुसल्मानों को स्वर्णप्रसू भारत वसुन्धरा का बहुत कुछ ज्ञान था। वे वाणिज्य