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उपयोगिता और उपकारिता स्पष्ट है। आज दिन जितनी जातियां समुन्नत हैं उन पर दृष्टि डालने से यह ज्ञात होता है कि जो जातियां जितनी ही गौरव प्राप्त और महिमामयी हैं उनका साहित्य भी उतना ही प्रशस्त और महान है। क्या इससे साहित्य की महत्ता भली भांति प्रकट नहीं होती?
जो जातियाँ दिन दिन अवनति-गर्त्त में गिर रही हैं उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि उनके पतन का हेतु उनका वह साहित्य है जो समयानुसार अपनी प्रगति को न तो बदल सका और न अपने को देशकालानुसार बना सका। मानवी अधिकांश सँस्कारों को साहित्य ही बनाता है। वंशगत विचार-परम्परा ही मानव जाति के सँस्कारों की जननी होती है। जिस जाति के साहित्य में विलासिता की ही धारा चिरकाल से बहती आई हो उस जाति में यदि शूरता और कर्मशीलता का अभाव प्रायः देखा जाय तो क्या आश्चर्य? इसी प्रकार जिस जाति के साहित्य में विरागधारा प्रबलतर गतिसे प्रवाहित होती रहे। यदि वह संसार त्यागी बनने का मंत्र पाठ करे तो कोई विचित्रता नहीं, क्योंकि जिन विचारों और सिद्धान्तों को हम प्रायः पुस्तकों में पढ़ते रहते हैं, विद्वानों के मुखसे सुनते हैं अथवा सभा-समाजों में घर और बाहर जिनका अधिकतर प्रचार पाते हैं उनसे प्रभावित हुये बिना कैसे रह सकते हैं? क्योंकि सिद्धान्त और विचार ही मानव की मानसिक भावों का संगठन करते हैं।
इन कतिपय पंक्तियों में जो कुछ कहा गया उससे यह सिद्ध होता है कि साहित्य का देश और समाज पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। यदि वे साहित्य के आधार से विकसित होते बनते और बिगड़ते हैं तो साहित्य भी उनकी सामयिक अवस्थाओं पर अवलम्बित होता है। जहां इनदोनों का सामञ्जस्य यथारीति सुरक्षित रहता है और उचित और आवश्यक पथ का त्याग नहीं करता वहाँ एक दूसरे के आधार से पुष्पित, पल्लवित और उन्नत होता है, अन्यथा पतन उसका निश्चित परिणाम है। मेरा विचार है कि इन बातों पर दृष्टि रखने से साहित्य-विकास का प्रसंग अधिकतर बोध गम्य होगा।