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वह धर्मभाव जो सब भावनाओं का विभव है, वह ज्ञान गरिमा जो गौरव-कामुक को सगौरव करती है, वह विचार परम्परा जो विचार शीलता की शिला है, वह धारणा जो धरणी में सजीव जीवन-धारण का आधार है। वह प्रतिभा जो अलौकिकता से प्रतिभासित हो पतितों को उठाती है, लोचन हीन को लोचन देती है और निरावलम्ब का अवलम्बन होती है। वह कविता जो सूक्ति-समूह की प्रसविता हो, संसार की सारवत्ता बतलाती हैं। वह कल्पना जो कामद-कल्प लतिका बन सुधा फल फलाती है, वह रचना जो रुचिर रुचि सहचरी है, वह ध्वनि जो स्वर्गीय-ध्वनि से देशको ध्वनित बनाती है साहित्य का सम्बल और विभूति है। वह सजीवता जो निर्जीवता संजीवनी है, वह साधना जो समस्त सिद्धि का साधन है, वह चातुरी जो चतुर्वर्ग जननी है, एवं वह चारू चरितावली, जो जाति चेतना और चेतावनी की परिचायिका है, जिस साहित्य की सहचरी होती है वास्तव में वह साहित्य ही साहित्य कहलाने का अधिकारी है। मेरा विचार है कि साहित्य ही वह कसौटी है जिस पर किसी जाति की सभ्यता कसी जा सकती है। असभ्य जातियों में प्रायः साहित्य का अभाव होता है इसलिये उनके पास वह संचित सम्पत्ति नहीं होती जिसके आधार से वे अपने अतीत काल का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकें। और उसके आधार से अपने वर्त्तमान और भावी सन्तानों में वह स्फूर्त्ति भर सकें, जिसको लाभ कर सभ्य जातियां समुन्नति-सोपान पर आरोहण करती हैं, इसीलिये उनका जीवन प्रायः ऐसी परिमित परिधि में बद्ध होता है जो उनको देश काल के अनुकूल नहीं बनने देता और न उनको उन परिस्थितियों का यथार्थ ज्ञान होने देता है जिनको अनुकूल बना कर वे संसार क्षेत्र में अपने को गौरवित अथवा यथार्थ सुखित बना सकें। यह न्यूनता उनके प्रतिदिन अधः पतन का कारण होती है और उनको उस अज्ञानान्धकार से बाहर नहीं निकलने देती जो उनके जीवन को प्रकाशमय अथवा समुज्ज्वल नहीं बनने देता। सभ्य जातियां सभ्य इसीलिये हैं और इसीलिये देश कालानुसार समुन्नत होती रहती हैं कि उनका आलोकमय वर्द्धमान साहित्य उनके प्रगति-प्राप्त-पथ को तिमिर रहित करता रहता है। ऐसी अवस्था में साहित्य की