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८. साहित्यिक हिंदी की उपभाषाएँ समय पर स्वयं अपना सिर उठा देती थी। हरिश्चंद्र ने भी उसमें बहुत कविता नहीं की है। काव्य की परंपरा के लिये ढली चली आती हुई व्रजभापा के सामने उसका काव्य के लिये स्वीकृत होना बहुत कम संभव था, क्योंकि खड़ी बोली में मधुरता का अभाव था। पर रहीम ने यह बात स्पष्ट कर दी थी कि संस्कृत वृत्तों का अनुसरण करने से खड़ी बोली की कविता में मिठास लाई जा सकती है। यही व्रात पीछे चलकर फारसी के वृत्तों के संबंध में हरिऔधजी की रचनात्रों से प्रमा- णित हुई। वर्तमान युग में मराठी के संसर्ग से पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने फिर से इसी बात का अनुभव प्राप्त किया और उनके दिखाए हुए मार्ग पर चलकर घावू मैथिलीशरण गुप्त तथा कई और कवियों ने अच्छी सफलता प्राप्त की। पर इसका एक बुरा परिणाम यह दृष्टि- गोचर हो रहा है कि खड़ी बोली की कविता एक प्रकार से संस्कृतमयी हो गई है। केवल कोई संयोजक शब्द, कोई विभक्ति या कोई निया जो यहाँ यहाँ मिल जाती है, इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट कर देती है कि यह कविता संस्कृत फी नहीं हिंदी की है। उदाहरण के लिये पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी की यह पंक्ति- "मांगल्य-मूलमय-वारिद-वारि-वृष्टि" अथवा पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय का यह पद्य देखिए- रूपोद्यानप्रफुलप्रायकलिका राकेंदुर्बियानना तन्वंगी कलहासिनी सुरसिका क्रीड़ाकलापुत्तली। शोभावारिधि की अमूल्य मणि सी लावण्यलीलामयी- श्रीराधा मृदुहासिनी मृगहगी माधुर्य सन्मूर्ति थी। श्रानंद की बात है कि अब धीरे धीरे खड़ी बोली की कविता की भाषा सरल गद्य की-सी हो रही है जो समय की प्रवृत्ति के अनुकूल तथा भापा कविता के भविष्य का घोतक है। अट्ठारहवीं शताब्दी में विशेष रूप से हिंदी के गद्य की रचना प्रारंभ हुई और इसके लिये खड़ी बोली ग्रहण की गई। पर इससे यह मानना कि उर्दू के आधार पर हिंदी (खड़ी बोली ) की रचना हुई, ठीक नहीं है। पंडित चंद्रधर गुलेरी ने लिखा है-"खड़ी बोली या पकी बोली या रेखता या वर्तमान हिंदी के प्रारंभ काल के गद्य और पद्य को देखकर यही जान पड़ता है कि उर्दू रचना में फारसी धरवी तत्समों या तद्भवों को निकालकर संस्कृत या हिंदी तत्सम और तद्भव रखने से हिंदी बना ली गई है। इसका कारण यही है कि हिंदू तो अपने घरों की प्रादेशिक और प्रांतीय घोली में रंगे थे, उनकी परंपरागत मधुरता उन्हें प्रिय थी। विदेशी मुसल-