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. हिंदी भाषा (५) खड़ी बोली-इस भाषा का इतिहास बड़ा ही रोचक है। यह भाषा मेरठ के चारों ओर के प्रदेश में बोली जाती है और पहले, यहीं तक इसके प्रचार की सीमा थी, वाहर इसका बहुत कम प्रचार था। पर जय मुसलमान इस देश में यस गए और उन्होंने यहाँ अपना राज्य स्थापित कर लिया, तब दिल्ली में मुसलमानी शासन का केंद्र होने के कारण विशेष रूप से उन्होंने उसी प्रदेश की भाषा खड़ी बोली को अप- नाया। यह कार्य एक दिन में नहीं हुश्रा। श्ररय, फारस और तुर्कि- स्तान से श्राप हुए सिपाहियों को यहांवालों से बातचीत करने में पहले यड़ी दिक्कत होती थी। न ये उनकी अरवी, फारसी समझते थे और नवे इनकी "हिंदवी पर विना वाग्व्यवहार के काम चलना असंभव था, अतः दोनों ने दोनों के कुछ कुछ शब्द सीखकर किसी प्रकार आदान प्रदान का रास्ता निकाला। यो मुसलमानों की उर्दू ( छाधनी ) में पहले पहल एक खिचड़ी पकी, जिसमें दाल-चावल सब खड़ी बोली के थे, सिर्फ नमक श्रागंतुकों ने मिलाया। श्रारंभ में तो वह निरी बाजारू बोली थी, पर धीरे धीरे व्यवहार बढ़ने पर और मुसलमानों को यहां की भाषा के ढाँचे का ठीक ठीक शान हो जाने पर इसका रूप कुछ कुछ स्थिर हो चला । जहाँ पहले 'शुद्ध' 'शुद्ध' घोलनेवालो से 'सही' 'गलत' योलवाने के लिये शाहजहाँ को "शुद्धौ सहीह इत्युक्तो हासुद्धौ गलतः स्मृतः " का प्रचार करना पड़ा था, वहाँ अब इसकी कृपा से लोगों के मुँह से शुद्ध, अशुद्ध न निकलकर सही, गलत निकला करता है। श्राज- कल जैसे अँगरेजी पढ़े लिखे भी अपने नौकर से 'एक ग्लास पानी' न मांगकर एक गिलास ही मांगते हैं, वैसे उस समय मुख-सुख-उच्चारण और परस्पर योध-सौकर्य के अनुरोध से वे लोग अपने "श्रोजवेक" का उजबक, 'कुतका' का कोतका कर लेने देते और स्वयं करते थे; एवं ये लोग घरेहमन् सुनकर भी नहीं चौंकते थे। बैसवाड़ी हिंदी, बुंदेलखंडी हिंदी, पंडिताऊ हिंदी, धावू-इँगलिश की तरह यह उस समय उर्दू-हिंदी कहलाती थी; पर पीछे भेदक उर्दू शब्द स्वयं भेद्य बनकर उसी प्रकार उस भाषा के लिये प्रयुक्त होने लगा जिस प्रकार 'संस्कृतवाक' के लिये केवल संस्कृत शब्द । मुसलमानों ने अपनी संस्कृति के प्रचार का सबसे घड़ा साधन मानकर इस भाषा को खूध उन्नत किया और जहाँ जहाँ फैलते गए, वे इसे अपने साथ लेते गए। उन्होंने इसमें केवल फारसी तथा अरवी के शब्दों की ही उनके शुद्ध रूप में अधिकता नहीं कर दी,

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