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हिंदी भाषा यहाँ हम इतना और कह देना चाहते हैं कि जहां नई जातियों के संसर्ग तथा नए भावों के उदित होने से हमारी भाषा में नए शब्दों का श्रागम रोकना असंभव है, वहाँ अपने पूर्व रूप को न पहचानने के कारण अपने प्राचीन शब्द-भांडार से सहायता न लेना भी अस्वाभाविक है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि अपना नैसर्गिक रूप न भूला जाय और भाषा को दासत्व की बेड़ी न पहनाई जाय।। ___ हम पहले लिख चुके हैं कि हिंदी में प्राचीन भार्यभाषाओं के शब्द भी तत्सम, अर्ध-तत्सम या तद्भव रूप में पाए हैं। जैसा कि हम पहले जीत आरतीय निर्देश कर चुके हैं, अनेक अवस्थानों में एक ही भाषाओं का प्रभाव 'शब्द के तत्सम और तद्भव दोनों रूप प्रयोग में श्राते हैं। पर ऐसे दोनों रूपों के अर्थों में कुछ सूक्ष्म विमेद हो गया है। जैसे, मेघ-मेह, स्थान--थान या थाना, दर्शन-देखना। इनमें से कहीं तो प्रायः ऐसा देखा जाता है कि सद्भय शब्द के अर्थ में कुछ विशिष्टता आ जाती है और कहीं तत्सम शब्द श्रादर अथवा महत्ता का सूचक हो जाता है। तत्सम संशावाचक और विशेषणवाचक शब्द संस्कृत से अधिकतर प्रातिपदिक रूप में और कुछ संस्कृत के प्रथमा एकवचन के रूप में श्राकर हिंदी व्याकरण के शासना.. धीन होते हैं। फल, घृत, पशु, सुंदर, कुरूप आदि शब्द प्रातिपदिक रूप में ही लिए हुए हैं। दाता, सरिता, राजा, धनवान्, तेजस्वी श्रादि प्रथमा एकवचन के रूप में पाते हैं। इसका तात्पर्य यही है कि हिंदी के फारक चिह स्वतंत्र हो गए है और संस्हंत के कारक चिह्नों का प्रयोग हिंदी में लुप्त हो गया है। . विशेषणों के तारतम्य-सूचक प्रत्यय भी हिंदी में प्रायः लुप्त हो गए हैं, और उनके स्थान पर अप्रत्यय शब्दों से काम लिया जाता है। कहीं कहीं इन प्रत्ययों का जो प्रयोग भी होता है, वह सूय तत्सम शब्दों के साथ। जैसे, श्रेष्ठतर, पुण्यतर, मंदतम। हिंदी के संख्यावाचक विशेप तथा सर्वनामों में बहुत विकार हो गया है। श्नच ये सर्चधा तद्भय हो गए हैं। तत्सम नामधातुज क्रियायों के रूप कविता में तो मिलते हैं, पर गद्य में नहीं मिलते। इधर किसी किसी का प्रयोग गद्य में होने लगा है; पर अधिकांश क्रियाएँ तय ही है, और जहां कहीं तत्सम शब्दों का प्रयोग किया जाता है, यहाँ तत्सम संशयाचक शब्द के साथ करना, होना, लेना श्रादि तद्य क्रियाएँ लगा दी जाती हैं।