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हिंदी पर अन्य भाषाओं का प्रभाव ५१ के लिये यह एक प्रकार से आवश्यक और अनिवार्य भी है। ये तत्सम शब्द अधिकतर संस्कृत के प्रातिपदिक रूप में लिए जाते हैं; जैसे, देव, फला और कुछ संस्कृत की प्रथमा के एकवचन के रूप में हिंदी में सम्मि- लित होकर प्रयुक्त होते हैं और उसके व्याकरण के अनुशासन में पाते हैं; जैसे-राजा, पिता, दाता, नदी आदि । इनके अतिरिक्त हिंदी में ऐसे शब्दों की बड़ी भारी संख्या है जो सीधे प्राकृत से श्राए हैं अथवा जो प्राकृत से होते हुए संस्कृत से निकले है। इनको तद्भव कहते हैं। जैसे-साँप, काज, बच्चा श्रादि। इस प्रकार के शब्दों में यह विचार करना आवश्यक नहीं है कि वे संस्थत से प्राकृत में श्राए हुए तद्भव शब्द हैं अथवा प्राकृतों के ही तत्सम शब्द ।' हमारे लिये तो इतना ही जान लेना यावश्यक है कि ये शब्द प्रारत से हिंदी में आए हैं। तीसरे प्रकार के शब्द चे हैं जिन्हें अर्ध-तत्सम कहते हैं। इनके अंतर्गत ये सव संस्कृत शब्द आते हैं जिनका प्राकृत-भापियों द्वारा युक्त विकर्ष (संयुक्त वर्णों का विश्लेपण ) या प्रतिभासमान वर्ण-विकार होते होते भिन्न रूप हो गया है । जैसे, श्रगिन, वच्छ, श्रच्छर, किरपा प्रादि । इन तीनों प्रकार के शब्दों की भिन्नता समझने के लिये एक दो उदाहरण दे देना श्रावश्यक है। संस्कृत का "श्राशा" शब्द हिंदी में ज्यों का त्यों आया है, श्रतएव यह तत्सम हुया। इसका अधेतत्सम रूप श्राग्यों हुआ। प्राकृत में इसका रूप "श्राणा" होता है जिससे हिंदी का 'श्रान' शब्द निकला है । इसी प्रकार "राजा" शब्द तत्सम है और 'राय' या 'राव' उसका तद्भव रूप है। ये तीनों प्रकार के-अर्थात् तत्सम, अध-तत्सम और तद्भव-शब्द हिंदी में मिलते हैं; परंतु सब शब्दों के तीनों रूप नहीं मिलते। क्रियापद और सर्वनाम प्रायः तद्भव है, परंतु संशा शन्द तत्सम, अर्ध-तत्सम और तद्भव तीन प्रकार के मिलते हैं। इन तीनों प्रकार के शब्दों के कुछ और उदाहरण नीचे दिए जाते हैं- तत्सम अर्ध-तत्सम तद्भव घच्छ स्वामी कर्ण कान कार्य कारज . काज पंख, पाख वायु पयार वत्स बच्चा साई