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चौथा अध्याय हिंदी पर अन्य भाषाओं का प्रभाव पीछे हम इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि किस प्रकार वैदिक माकृत से भिन्न भिन्न प्राकृतों का विकास हुश्रा और इनके साहित्यिक धाव-मेटा रूप धारण करने पर अपभ्रंशों का कैसे उदय हुश्रा, तथा जब ये अपभ्रंश भाषाएँ भी साहित्यिक रूप धारण करने लगी, तब श्राधुनिक देश-भापात्रों की कैसे उत्पत्ति हुई। हिंदी के संबंध में विचार करने के समय यह स्मरण रखना चाहिए कि इसका उदय क्रमशः शौरसेनी और अर्धमागधी प्राकृतों तथा शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से हुया है। अतपय जब हम हिंदी के शब्दों की उत्पत्ति तथा उसके व्याकरण के किसी अंग पर विचार करते हैं, तय हमें यह जान लेना आवश्यक होता है कि प्राकृतों या अपभ्रंशों में उन शन्दों के क्या रूप या व्याकरण के उस अंग की क्या व्यवस्था होती है। हमारे यहाँ अत्यंत प्राचीन काल में शब्दों की उत्पत्ति के विषय में बहुत कुछ विवेचन हुआ है। यास्क ने अपने निरुक्त में इस बात पर बहुत विस्तार के साथ विचार किया है कि शन्दों की उत्पत्ति धातुओं से हुई है। यास्क का कहना था कि सय शब्द धातु-मूलक हैं, और धातु वे क्रियावाचक शब्द है जिनमें प्रत्यय श्रादि लगाकर धातुज शब्द बनाए जाते हैं। इस सिद्धांत के विरुद्ध यह कहा गया कि सव शब्द धातु मूलक नहीं हैं। क्योंकि यदि सय शब्दों की उत्पत्ति धातुओं से मान ली जाय, तो "श्रश" धातु से, जिसका अर्थ 'चलना है, अश्व शब्द वनकर सब चलनेवाले जीवों के लिये प्रयुक्त होना चाहिए; पर ऐसा नहीं होता। इसका उत्तर यास्क ने यह दिया है कि जब एक क्रिया के कारण एक पदार्थ का नाम पड़ जाता है, तब वही किया करनेवाले दूसरे पदार्थों का वही नाम नहीं पड़ता। फिर किसी पदार्थ का कोई मुख्य गुण लेकर ही उस पदार्थ का नाम रखा जाता है, उसके सब गुणे का विचार नहीं किया जाता। इसी मत का अनुसरण पाणिनि ने भी किया है और इस समय सय भाषाओं के संबंध में यही मत माना भी जाता है। संस्कृत में १७०८ धातु हैं जिनके तीन मुख्य विभाग है-