पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३८५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आधुनिक काल ३८७ स्तत्त्व की सूक्ष्म समस्याएँ समझाई गई हैं और कुछ में व्यक्ति का व्यक्तित्व स्पष्ट किया गया है। प्रेमचंदजी की कहानियों में सामाजिक समस्याओं पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। उनकी भाषा-शैली कहा- नियों के बहुत उपयुक्त हुई है, और उनके विचार भी सय पढ़े लिखे लोगों के विचारों से मिलते-जुलते हैं। यही कारण है कि प्रेमचंदजी की कहानियां सबसे अधिक लोकप्रिय हैं। प्रेमचंदजी और जयशंकर प्रसादजी की आख्यायिकाओं में बड़ा भारी अंतर यह है कि एक में घटनाओं की प्रधानता रहती है और दूसरी में भावों की। प्रेमचंदजी के भाव घटनाओं के आश्रित रहते हैं और जयशंकर प्रसादजी की घटनाएँ भावों के आश्रित रहती हैं। अतएव हम कह सकते हैं कि एक घटनात्मक हैं और दूसरी भावात्मक है। कोशिकजी को कहानियों में पारिवारिक जीवन के पड़े ही मार्मिक और सच्चे चित्र हैं। उनका क्षेत्र सीमित है, पर अपनी सीमा के भीतर ये अद्वितीय हैं। ऐसा जान पड़ता है कि सुदर्शनजी ने पाश्चात्य कथा-साहित्य का अच्छा अध्ययन किया है। भारतीय श्रादर्शों की रक्षा करने की उनकी चेष्टा प्रशंसनीय है। हदयेशजी की कहानियों में कवित्व है पर उनकी भाषा अत्यधिक अलंकृत तथा उनके भाव कहीं कहीं नितांत कल्पित हो गए हैं। उनकी कल्पना में वास्तविकता कम मिलती है। अन्य कहानी-लेखकों में "अंतस्तल" के लेखक श्री चतुरसेन शास्त्री, श्री राय कृष्णदास, श्री विनोदशंकर व्यास श्रादि हैं । उग्रजी की कहानियाँ अच्छी हैं जिनमें उन्होंने अश्लीलता नहीं आने दी है। उनकी भापा यड़ी सुंदर होती है। हिंदी की छोटी कहानियों या गल्पों का भविष्य घड़ा उज्ज्वल जान पड़ता है, थोड़े ही समय में इस क्षेत्र में बड़ी उन्नति हुई है। हिंदी में अब तक निबंधों का युग नहीं पाया है। समालोचना- स्मक नियंधों के अतिरिक्त हिंदी के अन्य समी निबंध साधारण फोटि के हैं। पंडित बालकृष्ण मट्ट और पंडित प्रताप- निष नारायण मिश्र के निबंध हिंदी की पाल्यावस्था के हैं। उनमें विनोद आदि चाहे जो कुछ हो, घे साहित्य की स्थायी संपत्ति नहीं हो सकते। पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदीजी के निबंधों में विचारों की योजना कहीं कहीं विटंखल हो गई है। द्विवेदीजी को संपादन-कार्य में इतना व्यस्त रहना पड़ता था कि उनके स्वतंत्र नियंघों को देखकर हमें श्राश्चर्य ही होता है। भावात्मक नियंध लिसनेवालों में सरदार पूर्णसिंह का स्थान सयसे अधिक महत्त्व फा है, पर श्रय तो सरदारजी हिंदी को छोड़ कर अँगरेजी की ओर मुझ गए हैं। श्रीयुत