पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३८०

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३८० हिंदी साहित्य समा के कार्यक्षेत्र में लाने के पहले की हिंदी की अवस्था को प्रत्यक्ष जान- कारी नहीं है। उस समय हिंदी हर तरह दीन-हीन थी। उस समय उसके पास न अपना कोई इतिहास था, न कोश, न व्याकरण, साहित्य का खजाना खाली पड़ा था। बाहर की कौन कहे, खास अपने घर में भी उसकी पूछ और पादर न था। कचहरियों में वह अछूत थी, कालेज में घुसने न पाती थी, स्कूलों में भी एक कोने में दवकी रहती थी, हिंदू विद्यार्थी भी उससे दूर दूर रहते थे, अँगरेजी उर्दू को शुद्ध लिखने बोलने में असमर्थ हिंदी-भाषी भी उसे अपनाने में अपनी छुटाई समझते थे। सभा-समाजों की कौन कहे घर के काम-काज, हिसाब-किताव, चिट्ठी-पत्री में भी प्रायः उसका बहिष्कार ही था। पर श्राज इन सभी यातों में विलकुल दूसरा ही युग दिखाई दे रहा है। आज की हिंदी उस समय की हिंदी से हर बात में भिन्न है और इतनी भिन्न है कि पुराने परिचितों के लिये भी उसका पहचानना कठिन हो गया है। जिस भाषा को २५-३० साल पहले, बहुतों के विचार से, भापा का पद भी प्राप्त न था श्राज उसका राष्ट्रभापा पद प्रायः सर्वमान्य है। जिस भाषा में बातचीत और पत्र-व्यवहार करने में मिडिल के विद्यार्थी की भी हेठी होती थी उसे न बोल सकने के लिये आज बड़े बड़े अहिंदी- भाषी नेता तथा विद्वान् भी लजित होते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने के लिये श्राज हिंदी का ज्ञान एक श्रावश्यक गुण समझा जाता है। प्रचार का यह हाल है कि मद्रास और आसाम जैसे प्रांतों में भी भाज हिंदी का डंका बज रहा है। साहित्य को भी श्रासं कम से कम ऐसी स्थिति अवश्य है कि अन्य उन्नत प्रांतीय भाषाओं से हिंदी मजे से नजर मिला सके, बल्कि उसके एकाध अंग में वह उनसे आगे भी निकल गई है। हिंदी भाषा की यह प्रगति संभवतः भाषाओं के विकास के इतिहास में अभूतपूर्व घटना है। इतने काल में इतनी दिशाओं में इतनी अधिक उन्नति शायद ही किसी और मापा की हुई हो और जो संस्था इस संपूर्ण प्रगति का अप्रत्यक्ष तथा आंशिक कारण भी मानी जा सकती हो यह निःसंदेह धन्य है। ["याज" ६-११-८५ सारांश यह कि 'सरस्वती' पत्रिका के प्रकाशन और काशी की नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना के उपरांत हिंदी गद्य की दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति होने लगी। मापा में प्रौढ़ता और शक्ति पाई तथा कितनी ही सुंदर शैलियों का आविर्भाव हुश्रा। जिस प्रकार उर्दू में लखनऊ और देहली के दो केंद्र माने जाते थे, और उनकी अलग अलग