पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३६०

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३६० हिंदी साहित्य प्रकाश से परिपूर्ण होकर ज्योति की शत सहस्र किरणे विकीर्ण करने लगा। हमारी कविता भी सजग हो उठी। वह अपनी स्थविरता का परित्याग कर श्रागे वढी और सामयिक प्रवृत्तियों के अनुकूल रूप-रंग बदलकर शिक्षित जनता के साहचर्य में श्रा गई । स्वयं देवी सरस्वती ने अपने अलोकिक कर-स्पर्श से कविता-कामिनी को सुवर्णमयी बना दिया था। फिर भला मक्ति-गद्गद भाव से घर घर उसकी भारती क्यों न उतारी जाती, क्यों न उसकी यश प्रशस्ति अमिट अक्षरों से हमारे हृदय पटल पर अंकित कर दी जाती? उस काल की हिंदी कविता मुख्यतः देशप्रेम और जातीयता की भावना को लेकर उदित हुई थी, यद्यपि अन्य प्रकार की रचनाएँ भी थोडी बहुत होती रहती थीं। भारतेंदु हरिश्चंद्र की कविता हिंदी में नवीन प्रगति की पताका लेकर श्राई थी। उस समय के अन्य कवियों ने सच्चे सैनिकों की भांति अपने सेनापति का अनुगमन किया था। उन सभी कवियों पर भारतेंदु का प्रभाव स्पष्टत देस पडता है। यहाँ हम हरिश्चंद्र की फुटकर रच- नाओं की बात नहीं कहते जो चली श्राती हुई वंगारिक कविता की श्रेणी की ही मानी जायेंगी। उनकी जो रचनाएँ जातीय भावनाओं से प्रेरित होकर लिसी गई, जिनमें देश की अवस्था और समाज की अवस्था आदि का वर्णन है, यहाँ उसी का विवेचन अभीष्ट है। हम यह स्वीकार करते हैं कि भारतेंदु में उत्कट देश-प्रेम और प्रगाढ समाज-हिते- पिता के भाव थे, परंतु साथ ही हम यह भी मान लेते हैं कि उनका देशा- नुराग, जातिप्रेम श्रादि चाहा परिस्थितियों के फल-स्वरूप थे, उन्हें उन्होंने जीवन के प्रवाह के भीतर से नहीं देखा था। अनेक अवसरों पर तो राजा शिवप्रसाद आदि के विरोध में उन्होंने स्वदेशप्रेम का व्रत धारण किया था। इसी कारण उनकी तत्संबंधिनी रचनाएँ विशेप तन्मयता की सूचना नहीं देती, कहीं कहीं तो बॅगला श्रादि के अनुवादों के रूप में ही व्यक्त हुई है। क्षणिक परिस्थितियों के आधार पर निर्मित साहित्य के मूल में भावना की वह तीव्रता और स्थिरता नहीं होती जो स्थायी साहित्य के लिये अपेक्षित है। राजनीति और समाजनीति को जीवन के अविच्छिन्न अंग बनाकर जो रचनाएँ होंगी, काव्य की दृष्टि से उनका ही महत्व होगा, उन्हें प्रचारक या उपदेशक की दृष्टि से देखने से कवि- कर्म में अवश्य वाधा पड़ेगी। प्राकृतिक वर्णनों की जो परिपाटी रीति-नथकारों ने चला रखी थी, वह बहुत अधिक संकुचित थी। कवियों ने प्रकृति के नाना रूपों के विविध अलंकारों की योजना के लिये ही रख छोड़ा था, वे भानों का