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अाधुनिक भाषाएँ सकता है। यही एक ऐसी मध्यवर्ती भाषा है जिसमें बहिरंग भाषाओं के अधिक लक्षण मिलते हैं। यह हिंदी और बिहारी के मध्य की भाषा है। इसकी - की तीन विमापाएँ हैं--अवधी, वघेली और छत्तीसगढ़ी। " अवधी को ही कोशली या वैसवाड़ी भी कहते हैं। धास्तव में दक्षिण-पश्चिमी अवधी ही बैसवाड़ी कही जाती है। पूर्वी हिंदी नागरी के अतिरिक्त कैथी में भी कभी कभी लिखी मिलती है। इस भापा के कवि हिंदी साहित्य के श्रमर कवि हैं जैसे तुलसी और जायसी । इनका सबसे बड़ा भेदक यह है कि मध्यदेश की भापा अर्थात् हिंदी की अपेक्षा ये सब अधिक सहिति-प्रधान है। हिंदी की रचना सर्वथा पार व्यवहित है पर इन बहिरंग भाषाओं में सहित रचना " भी मिलती है। वे व्यवहिति से संहिति की ओर रही हैं। मध्यवर्ती भाषाओं में केवल पूर्वी हिंदी कुछ सहित पाई जाती है। यह पश्चिम पंजाब की भाषा है, इसी से कुछ लोग इसे पश्चिमी पंजावी भी कहा करते हैं। यह जटकी, अच्छी, हिंदकी, डिलाही श्रादि लटा नामों से भी पुकारी जाती है। कुछ विद्वान् इसे लहँदी भी कहते हैं पर लहँदा तो संज्ञा है अतः उसका स्त्रीलिंग नहीं हो सकता। लहँदा एक नया नाम ही चल पड़ा है। श्रय उसमें उस अर्थ के द्योतन की शक्ति आ गई है। . लहँदा की चार विभाषाएँ हैं--(१) एक केंद्रीय लहँदा जो नमक की पहाड़ी के दक्षिण प्रदेश में बोली जाती है और जो टकसाली मानी जाती है, (२) दूसरी दक्षिणी अथवा मुल्तानी जो मुल्तान के पास. पास बोली जाती है, (३) तीसरी उत्तर-पूर्वी अथवा पाठवारी और (४) चौथी उत्तर-पश्चिमी अर्थात् धनी। यह उत्तर में हजारा जिले तक पाई जाती है। लहँदा में साधारण गीतों के अतिरिक्त कोई साहित्य नहीं है। इसकी अपनी लिपि लंडा है। यह दूसरी बहिरंग भाषा है, और सिंध नदी के दोनों तटों पर - घसे हुए सिंध देश की बोली है। इसमें पांच विभापाएँ है--विचोली, मिती सिरकी, लारी, थरेली और कच्छी। विचोली मध्य सिंध की टकसाली भाषा है। सिंधी के उत्तर में लहँदा, दक्षिण में गुजराती और पूर्व में राजस्थानी है। सिंधी का भी साहित्य छोटा सा है। इसकी भी लिपि लंडा है पर गुरुमुखी और नागरी का भी प्रायः व्यवहार होता है। है कि साहित्यिक और धार्मिक दृष्टि से अर्धमागधी भाषा का सदा से ऊँचा स्थान रहा है पर राष्ट्रीय दृष्टि से मध्यदेश को भाषा ही राज्य करती रही है।