पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३५३

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रीति काल है। उनका काव्यनिर्णय ग्रंथ श्रव भी रीति के विद्यार्थियों का प्रिय ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त उनकी रची छंदार्णव-पिंगल, रससारांश, भिंगारनिर्णय श्रादि अन्य पुस्तके भी है। दासजी के आश्रयदाता प्रतापगढ़ के अधिपति पृथ्वीजीत- सिंह के भाई हिंदूपतिसिंह थे। दासजी के प्राचार्यत्व की बड़ी प्रशंसा की जाती है और रीति के सब अंगों का विवेचन करने के कारण उनकी कृतियां बड़े श्रादर से देसी जाती हैं। उनकी सुंदर समीक्षाओं तथा मौलिक भावनाओं का उल्लेख भी किया गया है। कविता की दृष्टि से दासजी की रचनाएँ बहुत ऊँची नहीं उठतीं। रीति काल के पूर्ववर्ती कवियों के भावों को लेकर स्वतंत्र विपय खड़ा करने में यद्यपि ये बड़े पटु थे, पर भावों के निर्वाह की मौलिक शक्ति न होने के कारण उन्हें सफलता कम मिली है। अवध में रहकर शुद्ध चलती ब्रजभापा लिस सकना तो बहुत कठिन है। पर दासजी की भापा सामान्यतः शुद्ध और साहित्यिक है। इससे उनके ब्रजभापा के विस्तृत अध्ययन का पता चलता है। समीक्षा बुद्धि के अभाव के कारण रीति की लीक पर चलनेवाले अनेक कवियों से भिखारीदास का स्थान बहुत ऊँचा है, पर कवियों की बहुत ऊँची पंक्ति में उन्हें कभी स्थान नहीं दिया गया। रीति काल के अंतिम चरण के ये सबसे प्रसिद्ध कवि हैं। ये तैलंग ब्राह्मण मोहनलाल भट्ट के पुत्र थे। पिता की प्रसिद्धि के कारण पद्माकर या अनेक राजदरवारों में इनका सम्मान हुआ था। " अवध के तत्कालीन सेनाध्यक्ष हिम्मतवहादुर की स्तुति में इन्होंने हिम्मतवहादुर-विरदावली नामक पुस्तक लिखी । इनके मुख्य प्राश्रयदाता जयपुराधीश जगतसिंह थे जिनको इन्होंने अपना जगद्विनोद ग्रंथ समर्पित किया था। इनका अलंकार-ग्रंथ पमाभरण भी जयपुर में ही लिखा गया था। प्रयोधपचासा और गंगालहरी इनकी अंतिम रचनाएँ थीं। मृत्यु के कुछ काल पहले से ये कानपुर में गंगा- तट पर निवास करने लगे थे। ___ पद्माकर की शृंगाररस की कविताएँ इतनी प्रसिद्ध हुई कि इनके नाम पर कितने ही कविनामधारियों ने अपनी कुत्सित चासनाओं से सने उद्गारों को मनमाने ढंग से फैलाया। श्राज भी पनाकर के नाम की ओट लेकर बहुत सी अश्लील रचनाएँ देहातों की कविमंडली में