पृष्ठ:हिंदी भाषा.djvu/३५१

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३५१ रीति काल नहीं है कि कविवर बिहारी की ख्याति में उनकी कविता की वास्तविक सुंदरता और उत्कृष्टता सहायक नहीं है। हाँ, यह अवश्य है कि इनकी अत्यधिक प्रसिद्धि का कारण साहित्य-संबंधी तत्कालीन अनोखी विचार- परंपरा भी है। बिहारी उस श्रेणी के समीक्षकों में सबसे अधिक प्रिय है जो अलग अलग दोहों की कारीगरी पर मुग्ध होते और यात को करा- मात पसंद करते हैं। सौंदर्य और प्रेम के सुंदरतम चित्र विहारी ने खींचे हैं, पर अलंकरण की पोर उनकी प्रवृत्ति सबसे अधिक थी। उनकी कविता आवश्यकता से अधिक नपी-तुली हो जाने के कारण सर्वत्र स्वाभाविकता-समन्वित नहीं है। विहारी ने घाट-याट देखने में जितना परिश्रम उठाया होगा, उतना चे यदि हृदय की टोह में करते तो हिंदी कविता उन्हें पाकर अधिक सौभाग्यशालिनी होती। : यह सव होते हुए भी उनकी सतसई हिंदी की अमर कृति कहलायगी श्रीर श्रेणी-विशेप के साहित्य-समीक्षकों तथा काव्य-प्रेमियों के लिये तो वह सर्वश्रेष्ठ रचना है ही। दोहे जैसे छोटे छंद में इतने अलंकारों.की सफल योजना करने में विहारी की टक्कर का कदाचित् ही कोई कवि हिंदी में मिले। ये इटावे के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इटावे के आस- पास सनाढ्यों की वस्ती होने के कारण उनके कान्यकुब्ज होने में संदेह व हो सकता है; पर देव के वंशज अपने फो कान्य. कुब्ज दुसरिहा (धोसरिया-देव ) ब्राह्मण बतलाते हैं। रीति-काल के ग्रंथकारों में सबसे प्रचुर परिमाण में साहित्य का निर्माण करनेवाले देव ही थे, क्योंकि इनके लिखे ५२ या ७२ ग्रंथों में से २६ का पता लग चुका है जिनकी छंद-संख्या कई सहस्र होगी। । बाल्यावस्था से ही इन्होंने जो काव्य-चमत्कार दिखलाया, उससे उनका नैसर्गिक प्रतिभा से समन्वित होना सिद्ध होता है। इस प्रतिभा का उपयोग उन्होंने श्राश्रयदाता धनियों की मिथ्या प्रशंसाएँ न कर सत्कविता के क्षेत्र में किया था। देव का सम्मान तत्कालीन किसी नृपति ने नहीं किया। इसका कारण चाहे जो हो, पर परिणाम अच्छा ही हुश्रा। उत्कृष्ट काव्य की सृष्टि के लिये वंधनमुक होकर विचरण करना आवश्यक होता है, उपकार या प्रसिद्धि के बोझ से दब जाने से कविता का ह्रास अवश्यंभावी है। जनसाधारण ने उनकी कविता का श्रादर उस समय नहीं किया इसका कारण उसकी विपथगामी रुचि ही कही जायगी। उनके ग्रंथों की टीकाएँ भी विहारी-सतसई की भांति नहीं निकली। राजदरवार में अत्यधिक सम्मानित होने के कारण